और इस बुनियाद पर जो तस्वीर बनती है, वो ब्लैक एंड व्हाइट नहीं बल्कि ग्रे है. और ग्रे तो आपको मालूम ही है कि काले और सफेद को घोलकर बनता है.

चूंकि हम सभी ग्रे हैं, लिहाजा आसिफ़ अली ज़रदारी भी हम जैसे ही हैं और अगर उन्हें बेनजीर भुट्टो, पीपल्स पार्टी और राष्ट्रपति पद से अलग करके देखा जाए तो निरे आम से आदमी निकलते हैं.

आप उन्हें पुश्तैनी रूप से सामंती के खाने में भी नहीं रख सकते हैं. आप उन्हें बहुत पढ़ा-लिखा या कोई किताबी कीड़ा या किताब या हिसाब से चलने वाला भी नहीं मान सकते हैं.

वो कोई करिश्माई या भाषाई करतब बाज़ भी नहीं हैं. उनका वैश्विक और सार्वभौमिक विज़न भी बहुत सतही है. अलबत्ता राजनीतिक संयोग और हादसों वाली तालीम ज़रूर है. इसलिए चिर-परिचित राजनेता के खाने में भी वो फिट नहीं दिखाई देते हैं.

अलबत्ता, मौजूदा व्यवस्था की कमजोरी और ताक़त को राजनेताओं की मौजूदा पीढ़ी में शायद ही कोई उनसे बेहतर समझता हो. वो राजनीति में न होते तो शायद शतरंज के गैरी कास्पारोव होते.

'किस्मत के धनी'

'ज़रदारी सियासत में न होते तो शतरंज के कास्पारोव होते'आसिफ़ अली ज़रदारी की सोच भी अक्सर देहाती और शहरी इलाकों में तैयार होने वाले उस मध्यवर्ग जैसी लगती है, जो अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं होता और असुरक्षा की भावना का शिकार होने की वजह से ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ें हासिल करने के चक्कर में मानसिक और शारीरिक ऊर्जा खर्च करता रहता है और तनी हुई जीवन की रस्सी पर झूलता रहता है.

कुछ लोग चाहें तो आसिफ़ अली ज़रदारी को किस्मत का धनी कह सकते हैं.

आप कुछ भी कह लें लेकिन इसका क्या करें कि मोहम्मद अली जिन्नाह से लेकर आज तक जितने भी सिविलियन राष्ट्राध्यक्ष आए उनमें फज़ल इलाही चौधरी के बाद ज़रदारी दूसरे निर्वाचित राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने निर्धारित संवैधानिक कार्यकाल पूरा किया. (बल्कि राष्ट्रपति फ़ज़ल इलाही चौधरी तो अपने संवैधानिक कार्यकाल यानी 14 अगस्त 1973 से 13 अगस्त 1978 के बाद एक महीना दो दिन ज़्यादा यानी 16 सितंबर 1978 तक राष्ट्रपति रहे.)

इस लिहाज़ से आसिफ़ अली ज़रदारी पहले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने अपने अधिकार किसी जनरल या पिछले दरवाज़े से आने वाले किसी सिविलियन को नहीं सौंपे बल्कि वो एक और निर्वाचित राष्ट्रपति को पद सौंपकर दिन के उजाले में विदा हुए.

'ज़रदारी सियासत में न होते तो शतरंज के कास्पारोव होते'

जितनी जेल आसिफ़ अली ज़रदारी ने काटी, उतनी किसी और निर्वाचित पाकिस्तान राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने अपनी पूरी राजनीतिक ज़िंदगी में नहीं काटी है.

क्यों ख़ास हैं ज़रदारी

जितने भी फौजी या सिविलियन, निर्वाचित या अनिर्वाचित गवर्नर जनरल या राष्ट्रपति आए, वो अपने अधिकारों से या तो असंतुष्ट रहे या उनमें वृद्धि की कोशिश करते रहे.

आसिफ़ अली ज़रदारी ने जब राष्ट्रपति पद संभाला, तो ये अहम अधिकारों से लैस और ताक़तवर पद था. लेकिन पहली बार किसी राष्ट्रपति ने अपने अधिकार अपनी मर्ज़ी से संसद और प्रधानमंत्री को सौंपे और अपने पद को सिर्फ सांकेतिक राष्ट्राध्यक्ष तक सीमित कर दिया.

यही नहीं, बहुत से संघीय अधिकारियों को प्रांतीय सरकारों को सौंपकर संवैधानिक प्रक्रिया को प्रोत्साहन दिया गया और इस तजुर्बे की क़लम एक ऐसे समाज में लगाई गई है, जहां कोई किसी के लिए दो फुट क्या दो इंज ज़मीन बड़ी मुश्किल से खुशी-खुशी छोड़ने को तैयार होता है.

'ज़रदारी सियासत में न होते तो शतरंज के कास्पारोव होते'

ये भी पाकिस्तान में पहली बार हुआ है कि जिस पार्टी का राष्ट्रपति और सरकार हो, वहीं पार्टी चुनावों में इतनी बुरी तरह हार खा जाए कि सिर्फ एक प्रांत तक सिमटकर रह जाए और इस हार का आरोप किसी और के सिर थोपने के बजाय चुनाव परिणामों को स्वीकार कर आगे आने वालों को संवैधानिक प्रक्रिया के अनुरूप बिना किसी चूं-चां के सत्ता भी सौंप दे.

रास्ता भी क्या है

इन पांच सालों में विपक्ष भी आमतौर पर बचपने से लड़कपन में दाखिल होता नज़र आया. सकारात्मक और नकारात्मक, सार्थक और निरर्थक संवाद के बावजूद किसी भी अहम राजनीतिक दल ने व्यवस्था को पटरी से उतारने की जानबूझकर कोशिश नहीं की. इसका फल सिविलयिन से सिविलियन को सत्ता सौंपे जाने के रूप में सबके सामने है.

इसके अलावा पहली बार उपचुनाव में जो भी हार-जीत हुई, वो ख़ालिस सरकारी बदमाशी के बजाय वोट के आधार पर हुई और सबने उपचुनाव के परिणामों को आम चुनावों के मुकाबले ज़्यादा खुशी-खुशी स्वीकार किया.

हिमालय से ऊंची आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी और सामाजिक समस्याएं और स्कैंडल जितने कल थे, आज भी उतने ही हैं. शायद आने वाले दिनों में और भी ज़्यादा हो जाएं लेकिन बुनियादी लोकतांत्रिक ढांचे पर अंदर या बाहर से कोई नई चोट न लगे तो जख्मों पर खुरंड आना शुरू हो जाएगा.

वैसे भी आज की तारीख में खुश उम्मीदी के सिवाय रास्ता क्या है!!!

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