छ्वन्रूस्॥श्वष्ठक्कक्त्र: किसी भी समाज को अगर सही से जानना है तो साहित्य को पढ़ना बेहद जरूरी है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। इतिहासकार व साहित्यकार भूत के बारे में लिखते जरूर हैं, लेकिन उनकी रुचि समकालीन रहती है। यह बातें करीम सिटी कॉलेज के अंग्रेजी विभाग द्वारा भारत विभाजन की त्रासदी और भारतीय उपमहाद्वीप का कथाप साहित्य विषय पर आयोजित सेमिनार के उद्घाटन सत्र में बतौर मुख्य वक्ता जेएनयू के अंग्रेजी विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ। हरीश नारंग ने कही। यूजीसी द्वारा प्रायोजित इस सेमिनार को संबोधित करते हुए डॉ। नारंग ने साहित्य और इतिहास के गहरे संबंध पर प्रकाश डाला और साहित्य को भी समकालीन इतिहास करार दिया।

थी अलग-अलग राय

उन्होंने कहा कि साहित्य जो हमारे सामने उपन्यास और कहानियों के रूप में आते हैं वे इतिहास के ऐसे रूप हैं, जो बहुत गहराई तक प्रभावित करते हैं। उन्होंने कैबिनट मिशन प्लान किताब का जिक्र करते हुए कहा कि इसमें इतिहासकार डॉ एमए। के इश्पहानी ने भारत विभाजन के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया। इतिहासकार बीआर नंदा ने मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराया। ब्रिटिश लेखक हडसन ने भारत विभाजन की मंशा तो अच्छी थी, लेकिन राय अलग-अलग थी। इसके लिए नेहरू व मुस्लिम लीग दोनों को उन्होंने दोषी पाया। उन्होंने कहा कि एक साहित्यकार इतिहासकार से भी अच्छा लिख सकता है।

सेमिनार में विशिष्ट अतिथि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ। विभा शर्मा, कोल्हान विश्वविद्यालय अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष डॉ.एके पाल तथा सूरजमल जालान कॉलेज, कोलकाता के डॉ। विवेक सिंह ने भी अपने विचार रखे। इस सत्र का संचालन प्रोफेसर वसुंधरा राय ने किया। सेमिनार में प्राचार्य डॉ। मोहम्मद जकरिया ने अतिथियों का स्वागत किया और सेमिनार के को-ऑडिनेटर कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर एसएम इब्राहिम ने विषय प्रवेश कराया।

प्रो बद्र ने प्रस्तुत किया लेखा-जोखा

सेमिनार में कॉलेज में उर्दू विभाग के प्रो। अहमद बद्र ने उर्दू कथा साहित्य में विभाजन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। उन्होंने भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के प्रतिष्ठित उपन्यासकारों और कथाकारों की रचनाओं का हवाला पेश यह साबित किया कि विभाजन में देश बंटा, लाखों जाने गईं, लूटमार, बलात्कार और न जाने क्या-क्या, जिनका हिसाब नहीं किया जा सकता, परन्तु जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ, वह है हमारी भारतीय साझा संस्कृति की मौत जिसके बनने में हजारों साल लगे थे। उसके बाद दो समानांतर सत्रों में क्रमश: प्रो। एसके सिन्हा व डॉ। डीके धंजल की अध्यक्षता में शोध पत्र प्रस्तुत किए गए।