छ्वन्रूस्॥श्वष्ठक्कक्त्र: पारंपरिक हथियारों से लैस होकर रविवार को दलमा की तलहटी पहुंचे शिकारी सोमवार को सेंदरा करेंगे। सेंदरा बीर, यानी आदिवासी शिकारी सोमवार को तड़के चार बजे दलमा जंगल पर चढ़ाई करेंगे और जंगली जानवरों का शिकार करेंगे। दिन भर शिकार करने के बाद दूसरे पहर में शिकार किए गए जानवरों को लेकर वापस लौटेंगे। इसके बाद शिकार को काटा जाएगा और सबसे इसे समान रूप में बांटा जाएगा।

रविवार को शिकार पर जाने से पूर्व हर शिकारी के घर पर पारंपरिक पूजा की गई। कलश (कांसे का लोटा) में पानी भर कर घर के पूजा घर में उसे स्थापित किया गया। सेंदरा बीर (शिकारियों) के लौटने के बाद ही उस कलश को उठाया जाएगा। तब तक अगर कलश में पानी घट गया तो उसे अशुभ माना जाता है।

सुहागनों ने धोया सिंदूर

जिस घर से सेंदरा बीर शिकार करने के लिए दलमा रवाना हुए, उन घरों में सुहागनों ने सिंदूर धो दिया। घर में तेल मसाला खाना भी बंद कर दिया गया। जब तक घर से गए पुरुष सेंदरा से नहीं लौट जाते, तब तक घर में न तेल-मसाला खाया जाएगा और न ही महिलाएं सिंदूर लगाएंगी। सेंदरा की परंपरा के तहत घर-घर में इस रिवाज को पूरा किया गया।

जानवरों का प्रजनन

सेंदरा को लेकर आदिवासियों का अपना तर्क है। आदिवासी समाज के लोग कहते हैं कि सेंदरा को सिर्फ जानवरों के शिकार के दृष्टिकोण से देखा जाना गलत है। उनके मुताबिक यह पर्व जंगली जानवरों के प्रजनन के लिए काफी जरूरी है। तर्क यह कि इतने बड़े जंगल में जानवर अपने-अपने इलाके में साल भर रहते हैं। ऐसे में कई बार नर व मादा का मिलन नहीं हो पाता, लेकिन चूंकि सेंदरा में ढोल-नगाड़े लेकर आदिवासी जंगल पर चढ़ाई करते हैं सो डर से जानवर जंगल में एक तरफ भाग जाते हैं, इससे उन्हें प्रजनन के लिए साथी मिल जाता है।

सेंदरा आदिवासियों की परंपरा है न कि शौक। कोई इस पर रोक लगाने की बात करता है तो इसे सिर्फ बचपना ही कहा जा सकता है। आदिवासियों की पहचान परंपरा व संस्कृति से है। इसके साथ समझौता बिल्कुल नहीं किया जा सकता।

दसमत हांसदा, जुगसलाई तोरोप परगना

हमारी लड़ाई अपनी परंपरा बचाने के लिए है। सेंदरा उन्हीं परंपराओं में से है, जिन्हें बचाए रखने के लिए हम संघर्षरत हैं। इसलिए इस परंपरा के आड़े किसी को आने नहीं दिया जाएगा। हम दायरे में रहकर अपनी परंपरा पूरी करेंगे।

दुर्गा चरण मुर्मू, तालसा माझी बाबा

हम जल-जंगल व जमीन से जुड़े लोग हैं। हम क्यों अपने जंगल का बुरा चाहेंगे। हम तो प्रकृति प्रेमी हैं। यह आदिवासियों की सलामती व प्रकृति की पूजा का पर्व है, इसे पर्व ही माना जाना चाहिए।

- भुगलू सोरेन, सरजमदा माझी बाबा

आदिवासी समाज को किसी गाइडलाइन की जरूरत नहीं। हमारा समाज खुद ही बेहद अनुशासित है। इसलिए न प्रशासन को हड़बड़ाने की जरूरत है न वन विभाग को। हम अपनी परंपरा नहीं छोड़ेंगे। परंपरा का निर्वाह हर हाल में होगा।

- जसाई मार्डी, आदिवासी छात्र एकता