फुटबॉल इन माई सिटी

- सिटी में मैदानों का है जबर्दस्त अभाव

- स्कूलों में तो किट है और न ही मैदान

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RANCHI (1 Oct) : किसी भी खेल के विकास के लिए सबसे जरूरी है मैदान और बात जब फुटबॉल की हो, तो स्टेडियम की जरूरत को नजरंदाज किया ही नहीं जा सकता। रांची में फुटबॉल के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर का जर्बदस्त अभाव है। यहां बचे-खुचे मैदान तेजी से सिमटते जा रहे हैं। जो मैदान बचे हैं, उनमें ज्यादातर सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आयोजन ही होते रहते हैं। मैदान में कार्यक्रमों के आयोजन से खिलाडि़यों को सबसे ज्यादा परेशानी होती है। वे न तो प्रैक्टिस कर पाते हैं और न ही किसी टूर्नामेंट में भाग ले पाते हैं।

स्टेडियम में लगा रहता है टेंट

रांची में फुटबॉल के लिए डेडिकेटेड स्टेडियम की भारी कमी है। खेलगांव में आम प्लेयर्स जाकर प्रैक्टिस नहीं कर सकते। वहीं बिरसा मुंडा फुटबॉल स्टेडियम, मोरहाबादी में आये दिन कोई न कोई प्रोग्राम होता रहता है। इतना ही नहीं, मोरहाबादी का आउटर मैदान भी आयोजनों का शिकार हो चुका है। सिटी के मैदान साल भर में ख्00 दिन बुक ही रहते हैं। कभी हरमू मैदान में आयोजन होता है, तो कभी मोरहाबादी में। रांची कॉलेज का मैदान बचता है, तो उसमें क्रिकेटर्स अभ्यास भी करते हैं और मैच का भी आयोजन होता है। एक समय था, जब हरमू चौक स्थित मैदान में गर्मी के दिनों में सुबह भ् बजे से ही बच्चों का जमावड़ा लगने लगता था। एक साथ ख्भ्0 से भी ज्यादा बच्चे अलग-अलग टीम बनाकर यहां फुटबॉल खेलते थे। लेकिन धीरे-धीरे इसे घेरना शुरू किया गया। प्रशासन की ओर से इस मैदान की पूरी तरह से घेराबंदी कर दी गई। दीवारों से घेर देने के बाद यहां दो बड़े गेट लगा दिए गए। बच्चों का आना-जाना बंद हो गया। विरोध के बाद इस मैदान के गेट तो खोल दिए गए, लेकिन यहां आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम आयोजित होने लगे। वाहनों का मेला हो या फिर कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम, हर हफ्ते यहां विशाल पंडाल नजर अा जाता है।

मोरहाबादी मैदान भी आयोजनों का शिकार

यही हाल मोरहाबादी मैदान का भी है। ख्भ् एकड़ से भी ज्यादा बड़े इस मैदान में कभी खिलाडि़यों को एक-दूसरे से परेशानी नहीं होती थी। अब हालत यह है कि इसके बड़े हिस्से में आये दिन कोई न कोई मेला लगा दिया जाता है। हर मेला दस से पंद्रह दिन चलता है, जिसके लिए दस दिन पहले से तैयारी शुरू हो जाती है। मैदान को चारों ओर से घेर कर विशाल संरचना खड़ी की जाती है। इसके बाद जब मेला खत्म होता है, तो उसे हटाने में भी दस दिन का वक्त लग जाता है। इस तरह एक मेले के आयोजन के कारण एक महीने से भी ज्यादा समय तक मैदान इंगेज रहता है। इस दौरान खिलाडि़यों को दूसरे मैदान का मुंह देखना पड़ता है।

स्कूलों में भी किट नहीं

फुटबॉल एसोसिएशन के ज्वाइंट सेक्रेट्री आशीष बोस बताते हैं कि स्कूलों में भी किट का अभाव रहता है। सरकारी स्कूलों में एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं मौजूद हैं, लेकिन उन्हें तराशने के लिए आवश्यक संसाधनों का अभाव है। ज्यादातर स्कूलों में इतना बड़ा मैदान नहीं कि वहां बच्चे फुटबॉल खेल सकें। एसोसिएशन को जब भी कोई लीग मैच कराना होता है, तो उन्हें रांची कॉलेज का मुंह देखना पड़ता है। खाली रहने पर परमीशन तो मिल जाता है, लेकिन मैदान में न तो घास है और न ही कोई स्टैंड। इसके चलते फुटबॉल मैच एक सेकेंड्री आयोजन बनकर रह जाता है।