रांची(ब्यूरो)। वर्ष 1936 में महावीर मंडल का गठन किया गया। नाम रखा गया श्री महावीर मंडल केंद्रीय कमेटी। इसके पहले अध्यक्ष महंत ज्ञान प्रकाश उर्फ नागा बाबा तथा महामंत्री डॉ रामकृष्ण लाल बनाए गए। इसके बाद महावीर मंडल के नेतृत्व में रामनवमी का जुलूस निकाला गया। जुलूस पहली बार डोरंडा के तपोवन स्थित राम मंदिर तक गया। तब से जुलूस तपोवन मंदिर तक जाने लगा। रांची में श्री महावीर मंडल केंद्रीय कमेटी के नेतृत्व में ही रामनवमी महोत्सव का आयोजन होता है। पांच लोग कुछ महावीरी पताका के साथ कमेटी के नेतृत्व में वर्ष 1936 में आरंभ हुआ रामनवमी महोत्सव अब भव्य रूप ले चुका है। रामनवमी की शोभायात्रा, 1964 को छोड़कर, नियमित रूप से निकाली जा रही है। 1970 के बाद अखाड़ों की संख्या में वृद्धि होने लगी। मोहल्लों में अखाड़ों का गठन किया जाने लगा।

80 के दशक में ताशा पार्टी की एंट्री

समय के साथ शोभायात्रा का स्वरूप भी बदला। 80Ó के दशक में रामनवमी जुलूस में ताशा पार्टी का समावेश हुआ। पहले स्थानीय ताशा पार्टी, फिर बाहर की ताशा पार्टी शामिल होने लगीं। 90Ó के दशक में बंगाल के कलाकार झांकी बनाने से लेकर ताशा व बैंड पार्टी के रूप में रांची की रामनवमी का हिस्सा बने। ढोल-ढाक, डफ व तुरही का स्थान ताशा, बैंजो और डीजे ने ले लिया। हालांकि इस दशक के अंत आते-आते डीजे ने स्थान बनाना शुरू किया और अब तो डीजे रांची की रामनवमी का अहम हिस्सा बन गया है। झारखंड बनने के बाद इसका रूप और वृहद हो गया।

जहां भक्त मत्था टेकते हैं

महावीर चौक पर ही बजरंगबली का प्राचीन मंदिर है। महावीर मंदिर का निर्माण 1870 में हुआ था। मंदिर के नाम पर ही चौक का नाम महावीर चौक पड़ा। प्रतिमा बनारस से मंगाई गई थी। उस समय बैलगाड़ी से 18 दिनों में प्रतिमा रांची पहुंची थी। यहीं से रांची में महावीरी झंडा निकालने की परंपरा शुरू हुई थी। भक्त यहां मत्था टेकते हैं। रामनवमी के दिन 1929 के पहले झंडे का भी पूजन होता है। मुख्य शोभयात्रा यहां आकर रुकती है, फिर यहां से आगे बढ़ती है।

तपोवन मंदिर आकर्षण का केंद्र

राजधानी में रामनवमी का मुख्य केंद्र तपोवन, निवारणपुर स्थित राम मंदिर है। पूरे शहर से महावीर मंडल का जुलूस यहां आकर समाप्त होता है। वर्ष 1929 में महंत रामशरण दास के प्रयास से तपोवन मंदिर रामनवमी का मुख्य केंद्र बना। तपोवन मंदिर महावीरी झंडे से पट जाता है। यहां भरत मिलाप होता है। भक्त भगवान का दर्शन-पूजन करते हैं। पूजा के बाद अपने-अपने अखाड़ों में लौटकर झंडे को स्थापित करते हैं। यहां अस्त्र-शस्त्र चालन की प्रतियोगिता भी होती है। सबसे बड़े एवं ऊंचे झंडे को पुरस्कृत किया जाता है। मंदिर के बाहर मेले का दृश्य हो जाता है। प्रसाद से लेकर, खाने-पीने के स्टॉल, खिलौने आदि की दुकानें लगती हैं।

1935 से डोरंडा में भी शोभायात्रा

डोरंडा में भी रामनवमी पर शोभायात्रा निकाली जाती है। सवप्र्रथम 1935 में डोरंडा बाजार में रामनवमी की शोभायात्रा निकाली गई थी। इसमें मोतीलाल जैन, रामकुमार शारदा, रामजीलाल विजयवर्गीय, जयपाल ठाकुर, जोद्धा बाबू, लखन गुप्ता आदि शामिल थे। 1947 के बाद यह वृहद रूप लेने लगी। 1974 में शोभा यात्रा बंद हो गई थी। 1986 में दोबारा शुरुआत हुई। 1930-40 तक डोरंडा रांची से अलग माना जाता था। रांची के अलावा हजारीबाग, जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो, डालटनगंज, देवघर, आदि शहरों में भी रामनवमी का जुलूस रामभक्त निकालेंगे।