डॉ. एपीजे अब्‍दुल कलाम खुद को पूर्व राष्‍ट्रपति नहीं प्रोफेसर कहलाना पसंद करते थे। सही मायनों में वे प्रोफेसर ही थे वे बच्‍चों में वैज्ञानिक सोच पैदा करना चाहते थे। यही वजह थी कि मिसाइल प्रोजेक्‍ट से इतर वे समय निकाल कर बच्‍चों को पढ़ाने पहुंच जाते। उनका अगले एक वर्ष का हर दिन किसी न किसी शैक्षणिक संस्थान को समर्पित था। देश के भविष्‍य बोले तो बच्‍चों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्‍होंने अपनी जिंदगी की अंतिम सांसें भी उन्‍हें पढ़ाते हुए ली... inexlive.com के न्‍यूज एडिटर मयंक शेयर कर रहे हैं ऐसा ही एक वाकया...


क्लास में किसी जादूगर से कम नहीं लगते थे कलाम
उनकी क्लास शुरू ही हुई थी। वे मोर पंख के रंगों का जिक्र कर रहे थे। तभी उनकी आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘यहां भी आ गए’। यह चोरी पकड़े जाने जैसा था। वे मुस्कुारा रहे थे। अण्णा यूनिवर्सिटी, चेन्नई के उस क्लासरूम में मेरे सामने हाथ में डस्टर लिए पूर्व राष्ट्र्पति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम खड़े थे। दिन भर में दूसरी बार उनसे मेरा आमना-सामना हो रहा था। एक दिन पहले ही उन्होंने दिल्ली में राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी किसी और को सौंपी थी। अगले ही दिन चेन्नई में वह टीचर की भूमिका में थे। ठीक से याद है जुलाई का ही महीना था। सामने ब्लैक बोर्ड पर अपने हाथों से उन्होंने कुछ आकृतियां उकेरी थी। ऐसा करते समय वह किसी जादूगर सरीखे लग रहे थे। वह नैनो टेक्नोलॉजी के बारे में बता रहे थे। हम सबको पहले ही उनकी सख्त हिदायत मिल चुकी थी। उन्हें पूर्व राष्ट्रपति नहीं अण्णा यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर कहकर संबोधित किया जाए। क्लासरूम के बाहर फोटोग्राफरों की भीड़ पूर्व राष्ट्रपति को पढ़ाते हुए अपने कैमरे में कैद करने को बेताब थी। अंदर प्रोफेसर कलाम पढ़ा रहे थे। आखिरकार फोटोग्राफरों को चंद पलों के लिए ही सही अंदर आने की इजाजत मिल गई। फिर उनके साथ ही मैं भी बाहर आ गया। मेरी क्लास अधूरी रह गई थी। पीछे मुड़कर क्लास के भीतर देखा, उन्होंने फिर पढ़ाना शुरू कर दिया था। चेहरे पर वही मुस्कुराहट वही सहजता थी। उनके पास मानो हर सवाल का जवाब थाउनके जादुई व्याक्तित्व की झलक उसी दिन शाम को पहले ही मिल चुकी थी। जब यूनिवर्सिटी के हजारों स्टूडेंट्स सम्मोहन में बंधे अपने नए प्रोफेसर की बात सुन रहे थे। पास ही फैकल्टी भी मौजूद थी। जो अपने नए साथी को देख, सुन, समझ और खुद को गौरवान्वित महसूस कर रही थी। उधर तमिल में दिए उनके संबोधन को ठीक तरह से समझने के लिए मुझे ऑफिस में बैठे अपने तमिल भाषी साथी का सहारा लेना पड़ रहा था। उनके पास मानो हर सवाल का जवाब था। ज्ञान जो सहज सुलभ था। जिसे दे रहे व्यक्ितयों ने वह सब अपने जीवन के अनुभवों से सीखा समझा था, जिसके पास अपनी एक दृष्टि तो थी लेकिन ज्ञानी होने या फिर देने का अहंकार नहीं था।अब नहीं मिलेगा वह मौका...


अंग्रेजी में एक मुहावरा है, फर्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन यानी पहली मुलाकात में बनी छवि आखिरी होती है। उस दिन के बाद से चेन्नई से लेकर कानपुर तक न जाने कितनी बार कितने ही कार्यक्रमों में उन्हें कवर किया। इस उम्मीद में कि शायद फिर झिड़की मिलेगी। बहरहाल वह मौका फिर कभी नहीं आया। अब न ही आएगा। मन में उनकी पहली छवि आज तक वैसी की वैसी है। मुस्कु्राते, सहजता की प्रतिमूर्ति सरीखी। सुप्रसिद्ध तमिल कवि संत तिरुवल्लुवर की उक्ति है योजनाएं हर कोई बना सकता है लेकिन कुछ ही होते हैं जो उन्हें क्रियान्वित करते हैं। डॉ. कलाम को हम किसी भी रूप में याद रखें मिसाइल मैन, पूर्व राष्ट्रपित या फिर प्रोफेसर कलाम। वह उनमें से थे जिन्होंने न सिर्फ बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनाई बल्कि उन्हें हकीकत में बदला। बड़े काम किए पर बड़प्पन की कमी नहीं होने दी। हम उन्हें अगर एक बेहतरीन इंसान की तरह याद रख सकें जिसने समाज देश को बहुत कुछ दिया.Tweet @paravaillai

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari