'फ़ौज में नगारो और बाताँ में हुंकारो'...जिस तरह सेना में योद्धाओं को उत्साहित करने के लिए नगाड़ा ज़रूरी है वैसे ही जब तक कहानी सुनने वाला हुंकारा नहीं भरे सुनाने वाले को मज़ा नहीं आता यह कहना था लक्ष्मी कुमारी चूंडावत का जिन्होंने अपनी लोक कथाओं में प्रेम रहस्य शौर्य और रोमांच के जाने कितने रंग भरे.


अब हुंकारा भरने वाले तो हैं लेकिन राजस्थानी कथा शिल्प की यह बेजोड़ लेखिका सदा के लिए मौन हो गई हैं. उनका पिछले दिनों निधन हो गया.लक्ष्मी कुमारी चूंडावत, पहली राजपूत महिला मानी जाती हैं, जिन्होंने राजस्थान के सामंती परिवेश में 'विद्रोह' कर घूँघट छोड़ा और राजनीति में क़दम रखा. विधानसभा में चुनकर गईं, राजस्थान प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभाला, राज्यसभा में भी रहीं, देश–विदेश में खूब घूमीं लेकिन साथ ही साथ राजस्थानी कथा साहित्य का लेखन अबाध जारी रखा.अचरज की बात यह है कि लोक कथाओं का दिलचस्प संसार रचने वाली चूंडावत ने कोई औपचारिक पढ़ाई नहीं की थी. बस घर पर ही रहकर अपने गुरु देवी चरण जी से अंग्रेज़ी, पंडित पन्ना लाल जी से संस्कृत और मुंशी ज़फर अली से उर्दू सीखी.दहेज में किताबों की अलमारी
राजस्थान के राजपूती माहौल में महिलाओं का घर से बाहर निकलना और वो भी बिना घूँघट के बिल्कुल नामुमकिन था. लड़कियों को तो घर के बाहर झांकना भी मयस्सर नहीं था तो फिर स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं था और न ही किताबों की दुकान पर.


उनके पति प्रगतिशील विचारों के थे और बदलते समय को पहचान रहे थे इसलिए परिवार लक्ष्मी कुमारी के साथ था लेकिन राजनीति में उतरने की पहली ज़रूरत थी पर्दा हटाना, जो आसान नहीं था. जब लक्ष्मी कुमारी चूंडावत ने हिम्मत दिखाई तो राजपूत समाज को ये पसंद नहीं आया.राजस्थान के रूढ़िवादी और सामंती परिवारों को एक आत्मविश्वासी महिला का चुनाव प्रचार करना गले नहीं उतरा. राजघराने की महिला से उन्हें ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी.उनके बेटे और पूर्व पुलिस महानिदेशक बलभद्र सिंह के अनुसार राजपूत समाज को इस बात से भी ज़बरदस्त नाराज़गी थी कि उन्होंने कांग्रेस का दामन क्यों थामा जो राजपरिवारों के प्रीविपर्स ख़त्म करने के लिए ज़िम्मेदार थी.राजपूत समाज ने उनके बगावती तेवरों को लगाम लगाने के उद्देश्य से लामबंद हो उन्हें चुनाव हराने के लिए कमरकस ली और उन्हें हरा कर ही दम लिया लेकिन अपने निश्चय पर कायम रहकर लक्ष्मी कुमारी चूंडावत ने अगले दो चुनाव लगातार जीतकर दिखाए.वो जब राजनीति में आईं उस समय उनके सास-ससुर नहीं थे. चूंडावत का कहना था कि यदि उनकी सास होतीं तो वे भी उन्हें कभी राजनीति में नहीं आने देतीं.ड्राइविंग

आज से 70 साल पहले महिलाओं का गाड़ी चलाना भी कोई प्रचलित काम तो था नहीं. ड्राइविंग सीखने के मामले में भी उन्हें काफ़ी मुश्किलें आईं क्योंकि आबादी के बीच गाड़ी चलाते वक़्त उन्हें घूँघट लेना पड़ता था.उन्होंने गाड़ी चलाने का अभ्यास जंगल में जाकर किया क्योंकि वहाँ वो घूँघट हटाकर खुली हवा में साँस लेकर गाड़ी दौड़ा सकती थीं. उन्होंने गाड़ी भी चलाई, घुड़सवारी का शौक़ भी पूरा किया और शिकार पर भी जाया करती थीं.राजस्थान के मशहूर लेखक विजयदान देथा का पिछले वर्ष निधन हुआ था.उनका जितना विरोध हुआ, उन्होंने उतनी ही ज़्यादा मेहनत की. इस संघर्ष में उन्हें मज़ा आने लगा और सार्वजनिक जीवन में काम करना भी बहुत भायालेकिन 1980 का चुनाव वो कम अंतर से जीतीं तो उन्होंने तय कर लिया कि अब वे अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी. इसे उन्होंने परिवर्तन का संकेत समझा और कहा कि अब औरों के लिए जगह खाली कर देनी चाहिए.

सम्मानउनके जीवन पर केंद्रित किताब 'फ़्रॉम पर्दा टू द पीपल' (संपादक - फ़्रांसिस टैफ़्ट) में उनके राजनीतिक जीवन के अनुभवों का सुंदर चित्रण है. उन्होंने साल 1978 के विश्व शांति सम्मेलन, संयुक्त राज्य निशस्त्रीकरण सम्मेलन सहित कई सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया.
उन्हें पद्मश्री सहित कई पुरस्कार भी मिले जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य महोपाध्याय, राजस्थान साहित्य अकादमी विशिष्ट पुरस्कार शामिल हैं. उन्हें 2012 में राज्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्मान “राजस्थान रत्न” से भी विभूषित किया गया.कभी-कभी उनसे पूछा जाता था कि अगर वे हिंदी में लिखतीं तो शायद और ज़्यादा लोकप्रिय होतीं तो वे कहतीं, "अपनी अपनी ज़ुबान की खूबियाँ होती हैं पर राजस्थानी में जो मिठास है वो हिंदी में नहीं हो सकती. मैं चाहती हूँ कि राजस्थानी भाषा में जान डालनी चाहिए, उसे मान्यता मिलनी चाहिए."पिछले साल ही राजस्थानी के लोकप्रिय कथाकार विजयदान देथा 'बिज्जी' ने अलविदा कहा था और अब रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत के जाने से राजस्थानी साहित्य को एक बड़ा झटका लगा है.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari