GORAKHPUR : जिदंगी जीने की जिद हो तो कुदरत की लिखी तकदीर को बदला जा सकता है. दिल में सच्ची चाहत हो तो मंजिल पाने का जज्बा हर मुश्किल को आसान कर देता है. पक्का इरादा देखकर किस्मत खुद ही संवर जाती हैं. सिटी में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपनी लाचारी और बेबसी को हुनर बना दिया. उनकी लाचारी को देखकर जमाने ने ताना मारा लेकिन वह जीने का बहाना बन गया.


फिर खूबसूरत लगती है जिदंगी
रोडवेज बस स्टेशन पर बतौर एनाउंसर रविंद्र नाथ श्रीवास्तव जॉब करते हैं। कुशीनगर के रुधौली निवासी वंश बहादुर के पांच बेटे में तीसरे नंबर के रविंद्रनाथ बीमारी की वजह से बचपन में आंखों को खो बैठे। गांव में लोगों ने आंखों को लेकर तंज कसा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जिद थी कुछ कर गुजरने की, इसलिए तमाम मुश्किलों के बाद भी किसी तरह से इंटरमीडिएट की तक की पढ़ाई की। उसके बाद हायर एजुकेशन के लिए वाराणसी पहुंचे। बात 1976 की है एमए में एडमिशन नहीं मिल रहा था। उन्होंने ठान लिया कि पढ़ाई पूरी करके रहेंगे। किसी तरह से दिल्ली पहुंचे, लेकिन एक आम आदमी होने की वजह से उनका तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलना मुश्किल हो गया। खाली हाथ दिल्ली गए थे। दो दिन में खाने के लाले पड़ गए। एक मंदिर पर भजन मंडली में शामिल होकर ढोल बजाने लगे। तब इंदिरा गांधी किसी काम विदेश गई थीं। उनके आने तक मंदिर पर भजन कीर्तन करते रहे। इंदिरा गांधी लौटकर आईं तो मुलाकात मुश्किल होने लगी। पीए ने मना कर दिया तब  रविंद्रनाथ ने आम आदमी के हक का अहसास पीए को दिलाया। फिलहाल इंदिरा जी से मुलाकात के बाद रविंद्रनाथ को एडमिशन मिल गया। एमए के साथ उन्होंने संगीत की शिक्षा भी ग्रहण कर ली। पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी की जरूरत महसूस हुई। दोबारा 1981 में नौकरी मांगने इंदिरा गांधी के पास पहुंची। तब उनके कहने पर रोडवेज बनारस में नौकरी मिल गई। 2003 में गोरखपुर ट्रांसफर होकर आ गए। तभी यहां पर यात्रियों को सुरक्षित यात्रा की हिदायत देते हैं। इरादों को नहीं रौंद पाया ट्रक


2003 में नौसढ़ चौराहे पर तेज रफ्तार ट्रक ने अलहदादपुर के मनोज कुमार को रौंद दिया था। प्राइवेट जॉब करके कुनबे की परवरिश करने वाली फैमिली पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। जिदंगी तो बच गई लेकिन पैरों ने साथ छोड़ दिया था। उपचार में करीब दो लाख खर्च हो गए, लेकिन उसके बाद वे कभी खड़े न हो सके। अपने परिवार इकलौते पालनहार मनोज के सामने बेबसी के सिवा कोई चारा नहीं बचा। छोटे मोटे काम करके पत्नी ने किसी तरह से पति का उपचार कराया। फैमिली की हालत बेहद खस्ता हो गई। अपने लोग भी धीरे- धीरे मुंह मोडऩे लगे। मनोज के सामने बड़े हो रहे दो बेटों की परवरिश का संकट खड़ा गया, लेकिन मनोज ने हार नहीं मानी। उसने फैसला किया किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। दो पैसे ही सही पर मेहनत और ईमानदारी से कमाएंगे। कामर्स से इंटरमीडिएट मनोज ने कचहरी को हथियार बनाया। बैसाखी के सहारे ई गर्वनेंस आफिस के सामने पहुंचे। वहां स्टूडेंट्स को फॉर्म भरवाने में मदद करने लगे। किसी स्टूडेंट पर कोई दबाव नहीं बनाते हैं। फार्म भरने, जानकारी देने के बदले जो मिल जाता है। उसे खुशी- खुशी थाम लेते है, लेकिन इससे बढ़कर मनोज जो काम करते हैं वह सोसायटी को आईना दिखाने वाला है। किसी विकलांग स्टूडेंट से वह कभी पैसे नहीं मांगते। फ्री में मदद करके मनोज को बहुत खुशी मिलती है। क्योंकि वो जानते हैं कि मुसीबत आने पर दिल पर क्या बीतती है। मैंने आंखें खोकर भी दुनियां की खूबसूरती देखी है। जो लोग जिदंगी से हार जाते हैं। उनको कभी मुकाम नहीं मिलता। रविंद्रनाथ श्रीवास्तव, एनाउंसर, रोडवेज रेलवे बस स्टेशन पैर खोने पर अहसास हुआ कि विकलांग लोगों पर क्या बीतती होगी, लेकिन दूसरों के आगे हाथ फैलाये बिना भी खुशियों  के दीपक जलाए जा सकते हैं। मनोज कुमार, अलहदादपुरreport by : arun.kumar@inext.co.in

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