प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने एक उत्साह का माहौल बना रखा है जो कांग्रेस खेमे में नहीं दिखाई देता. और 2014 के आम चुनावों का सबसे दिलचस्प पहलू यही है.


नरेंद्र मोदी को राहुल गाँधी की तुलना में एक बेहतर संचारक और अधिक प्रेरणादायक नेतृत्व के तौर पर देखा जा रहा है. भावनात्मक भाषणों के दौरान अपने करिश्मे का इस्तेमाल करने में इस नौजवान की कमज़ोरी या हिचकिचाहट ने भी उनकी पार्टी को नुकसान पहुँचाया है. सियासी खानदान इसी तरह के शोर शराबे के सहारे अपना वजूद बचाते रहे हैं और दक्षिण एशिया का हर राजनीतिक परिवार ये जानता है.हालांकि मोदी ने कामयाबी का सफ़र अपने बूते तय किया है और उनमें इसी तरह का करिश्मा पैदा करने की काबिलियत और भरोसा दोनों ही दिखाई देता है. किसी राजनीतिक परिवार की विरासत पास न होने के बावजूद वे अपने मतदाताओं के लिए ख़ास मायने रखते हैं.सरकार चलाने और तरक्की के मोर्चे पर गुजरात के इस कद्दावर नेता को बढ़त हासिल है और राहुल गाँधी इस मामले में उनसे उन्नीस ठहरते हैं.कार्यकर्ताओँ में जोश



चुनावी प्रचार अभियान के दौरान व्यक्तित्व और जीवंतता की ज़रूरत होती है और कांग्रेस में इसकी कमी लगती है, पार्टी के भीतर के कई लोग इसे स्वीकार भी करते हैं. सवाल ये उठता है कि ये कहाँ से आएगा? मीडिया और लोगों से बहुत कम मिलने-जुलने वाली प्रियंका अपनी भाई की तुलना में अधिक जादुई व्यक्तित्व की हैं.पति की कथित कारगुज़ारियाँ और उसे लेकर लोगों के बीच बनी ख़राब छवि के बावजूद प्रियंका पर इसकी जरा सी भी आंच नहीं आई है. इसकी वजह उनकी खुदमुख्तार शख्सियत है. उन्हें पसंद किया जाता है और वे आकर्षक व्यक्तित्व की भी हैं. यही वजह है कि कई कांग्रेसी ये मानते हैं कि प्रियंका के आने से मोदी के खिलाफ़ लड़ाई में पार्टी को मदद मिलेगी. मोदी ने बीते दशकों में कांग्रेस को सबसे कठिन चुनौती दी है.इस बात को दूसरे तरीके से भी देखा जा सकता है. बहन के पक्ष में किनारे किए जाने से पहले राहुल को असफल होने का एक मौका दिया जाना चाहिए. मौजूदा सूरतेहाल में प्रियंका को लाने का ये मतलब राहुल की नाकामी और 2014 की पराजय को स्वीकार कर लेना होगा और अभी ये हार हुई नहीं है.सोनिया की हिचकिचाहट

यह ठीक हो सकता है और मुमकिन है कि पार्टी के भविष्य के तौर पर राहुल को देखे जाने के विचार पर दोबारा से सोचे जाने की ज़रूरत हो लेकिन इसका आकलन किसी काल्पनिक नतीजे के आधार पर नहीं किया जा सकता है. कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद से ही सोनिया गाँधी ने तीन लगातार आम चुनावों में सीटों के लिहाज से पार्टी का चुनावी प्रदर्शन सुधारा है.संभावना है कि ये सिलसिला इस बार टूट जाएगा और पार्टी की सीटें घटेंगी और अगर ऐसा होता है तो मुमकिन है कि राहुल गाँधी को मिली तवज्जो के मद्देनजर इस हार को उनकी नाकामी के तौर पर देखा जाए. एक नेता के तौर पर कम से कम मीाडिया में देखा जाए तो सोनिया गाँधी की साख उनके बेटे की तुलना में कहीं बेहतर है.एक दिलचस्प बात ये भी है कि उन पर कभी भी उस तरह के सियासी हमले नहीं किए गए हैं जिनका सामना राहुल को करना पड़ता रहा है. हालांकि कांग्रेस की ज़िम्मेदारी निजी तौर पर उन्हीं की है. लेकिन वे सरकार का चेहरा बनने को लेकर हिचकिचाती रही हैं और अब तो पार्टी की भी. उनके बेटे को ये दिखाना होगा कि वो दुनिया की सबसे अनमोल राजनीतिक विरासत की जिम्मेदारी उठाने में सक्षम हैं.

 

Posted By: Subhesh Sharma