हमारी सीरीज दास्‍तान कहानी है उनकी जिन्होंने गुमनामी के अंधेरों से बाहर निकलकर रियो ओलंपिक का सफर तय किया है। अनजानी जगहों से निकले ये खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की आस हैं। जो जिंदगी की तमाम दुश्वारियों को पीछे छोड़कर नई इबारत लिखने को बेताब हैं। इस बार यह दास्तान है रेसलर विनेश फोगाट की।

हार कर जीतने वाली जादूगर
विनेश फोगाट की जिंदगी में 'शायद' की जगह नहीं है। बचपन से ही जीतना उसकी आदत में शुमार है। वह हार भी सकती है ये अहसास उसे एशियन कैडेट चैंपियनशिप, 2010 में हुआ। जहां जापानी पहलवान ने उसे हरा दिया। चार महीनों में तीन बार रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने में नाकामयाब रही विनेश का आत्मविश्वास एकबारगी डोल सा गया था। हालांकि उसने इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उसने हार को जीत में बदलने की कला सीखी। उसके हौसले का अनुमान स्कूली जीवन की इस घटना से लगाया जा सकता है। बचपन में स्कूल में 200 मीटर की रेस आयोजित की गई थी। दौड़ते समय विनेश गिर पड़ी। बाकी बच्चों को आगे निकलता देख वह उठ खड़ी हुई। आखिरकार वह रेस जीतकर ही मानी।

एक कहानी है विनेश की जिंदगानी
हरियाणा के गांव बलाली में जन्मी विनेश पहलवान महावीर फोगाट के छोटे भाई राजपाल की बेटी है। पहलवान गीता फोगाट व बबिता कुमारी उसकी चचेरी बहने हैं। बेटियों को पहलवानी सिखाने चले उसके ताऊ और पिता को समाज व गांववालों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। रुढ़ियों में बंधे समाज के गले के नीचे यह बात उतारना मुश्किल था कि बेटियां पहलवानी करें। बहरहाल समाज की परवाह किए बगैर महावीर फोगाट व राजपाल दोनों ही अपने फैसले पर डटे रहे। जब बेटियों ने पदक जीतने शुरू किए तो गांववालों का रवैया भी बदलने लगा।
पसंद नहीं अव्वल आने की जिद्द  
पहलवानी विनेश की पहली पसंद नहीं थी। हो भी कैसे सकती है जब ताऊ छड़ी लेकर ट्रेनिंग के दौरान खड़ा रहे और हर गलती पर सजा मिले। साथ ही यह सुनने को भी ओलंपिक में पदक ऐसे कैसे जीतेगी। वह तो बस पढ़ाई और कुश्ती दोनों में अव्वल आकर दिखाना चाहती थी। वक्त के साथ उसने ऐसा किया भी। उसकी कामयाबी का सफर शुरू हुआ तो लंबा चला। उसके जीते हुए मेडल इसकी बानगी हैं।

कामयाबी के बाद नाकामयाबी
विनेश ने एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में 48, 51 व 53 किलो भारवर्ग में एक सिल्वर व दो ब्रांज मेडल जीते हैं। ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स में 48 किलो भारवर्ग में सोने का तमगा और इंचियोन एशियन गेम्स में इसी भारवर्ग में कांस्य पदक जीतकर उसने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। कामयाबी के सिलसिले के बाद नाकामियों का भी दौर आया। विश्व चैंपियनशिप में उत्तर कोरियाई पहलवान के हाथों हारकर वह पहले ही दौर में बाहर हो गई।
रियो की रार
शीर्ष छह पहलवानों में जगह न बना पाने के कारण रियो ओलंपिक के लिए क्वालिफाई करने में नाकाम रही। दूसरा मौका एशियन क्वालिफायर में आया। रियो का टिकट कटाने के लिए फाइनल में पहुंचना जरूरी था। वह सिर्फ एक अंक से सेमीफाइनल में हार गई। अभी इस हार से वह उबरी भी नहीं थी कि मंगोलिया में विश्व ओलंपिक क्वालिफिकेशन टूर्नामेंट में उसे बिना खेले ही बाहर हो जाना पड़ा। तय वजन से 400 ग्राम वेट अधिक होने के कारण। इसके बाद चारों ओर उसकी आलोचना शुरू हो गई। ओलंपिक मेडल तो दूर वह क्वालिफाई तक नहीं कर पाई थी। रेसलिंग फेडरेशन ने भी उसे शो कॉज नोटिस थमा दिया।

जीतने की आदत नहीं छोड़नी
समय ने फिर करवट ली। आखिरकार अपने प्रदर्शन से उसने न सिर्फ आलोचकों का मुंह बंद किया बल्कि रियो का टिकट भी कटा लिया। इंस्ताबुल, तुर्की से पहले विनेश का आत्मविश्वास डगमगा रहा था। यहां दूसरे विश्व क्वालिफाईंग टूर्नामेंट में उसने वर्ल्ड सिल्वर मेडलिस्ट इवाना मटकोवास्का को हराया व गोल्ड जीतकर उसे वापस पाने में कामयाबी पाई। सभी को उम्मीद है कि हरियाणा की यह छोरी रियो अपनी जीतने की आदत नहीं भूलेगी।

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Posted By: Molly Seth