प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राष्ट्रमंडल देशों के प्रमुखों चोगम की बैठक में हिस्सा लेने के लिए श्रीलंका जाने को लेकर चल रही बहस में अब उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भी कूद पड़े हैं.


'जाएं या न जाएं' की इस बहस में मुद्दे स्पष्ट हैं. विदेश मंत्रालय का मानना है कि भारत को खासकर अपने पड़ोसियों के संदर्भ में विदेश नीति तय करने के अधिकार को पूरी ताकत के साथ इस्तेमाल करना चाहिए.कोलंबो नहीं जाने से श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की किरकिरी होगी और वो भारत के परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों, चीन और पाकिस्तान के और क़रीब जा सकते हैं.दूसरी तरफ प्रधानमंत्री के इस दौरे के ख़िलाफ़ उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों ने ही आवाज़ बुलंद कर दी है.वित्त मंत्री पी चिदंबरम, पर्यावरण और वन मंत्री जयंती नटराजन, प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायणसामी और जहाजरानी एवं उद्योग राज्यमंत्री जी के वासन ने प्रधानमंत्री की श्रीलंका यात्रा का विरोध किया है.इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि इन सभी मंत्रियों का संबंध तमिलनाडु से है जिसका श्रीलंका के तमिल बहुल उत्तरी और पूर्वी प्रांतों से क़रीबी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध हैं.


तमिलनाडु की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों, द्रमुक और अन्नाद्रमुक ने साफ़ कहा है कि वे प्रधानमंत्री की श्रीलंका यात्रा के ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि इस बैठक में हिस्सा लेने का मतलब श्रीलंका के तमिल नागरिकों के ख़िलाफ़ राजपक्षे की नीतियों को मान्यता देना होगा.मांग का आधार

ज़ाहिर है कि तमिलनाडु के दलों की मांग बिना वजह नहीं है.  श्रीलंका में सितंबर में उत्तरी प्रांतीय परिषद के चुनाव हुए थे जिसमें तमिल नेशनलिस्ट एलायंस ने जबर्दस्त जीत हासिल की थी. लेकिन इसके बावजूद राजपक्षे ने भूमि और पुलिस से जुड़े अधिकारों को प्रांतीय सरकार के हवाले करने से मना कर दिया है.प्रांतीय गवर्नर भी कोलंबो सरकार की कठपुतली है जो चुनी हुई प्रांतीय सरकार की बात मानने की बजाए राजपक्षे का ही साथ देगा.सूत्र का इशारा लिट्टे के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई के दौरान श्रीलंकाई सेना द्वारा किए गए कथित मानवाधिकारों की तरफ था. श्रीलंकाई सैनिकों पर आरोप है कि उन्होंने लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण के निहत्थे पुत्र को गोली मार दी थी.हालांकि राजपक्षे ने इन आरोपों का खंडन किया है लेकिन निजी तौर पर श्रीलंकाई अधिकारी मानते हैं कि इस लड़ाई में आम नागरिकों को भी नुकसान पहुंचा होगा. उनका कहना है कि मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा.आशंका यह भी है कि भारत के पास मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा उठाने का मजबूत नैतिक आधार नहीं है क्योंकि वो खासकर जम्मू कश्मीर में खुद ऐसे आरोपों में घिरे हैं.

इसके अलावा राजपक्षे की चीन और पाकिस्तान से दोस्ती गहरा रही है और भारत की तरफ से कोई भी नकारात्मक कदम उसे इन देशों के और क़रीब पहुंचा सकता है.जपक्षा कारा साथभारतीय कूटनीतिज्ञों का कहना है कि लिट्टे के ख़िलाफ़ युद्ध में भारत ने कई बार राजपक्षे का साथ दिया था. ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि एक तो लिट्टे पर राजीव गांधी की हत्या का आरोप था और दूसरा भारत अमरीका जैसे देशों को हिन्द महासागर में अपना प्रभुत्व कायम नहीं करने देना चाहता था.उनका कहना है कि अमरीका और स्कैंडिनेविया क्षेत्र के कई देश प्रभाकरण को जाफ़ना से निकलने में मदद करना चाहते थे लेकिन भारत ने राजपक्षे की मदद करके ऐसा नहीं होने दिया था.ऐसे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास क्या विकल्प हैं? एक तरीका यह हो सकता है कि तमिल बहुल उत्तरी प्रांत की राजधानी जाफ़ना भी जाएं और नवगठित सरकार के तमिल मुख्यमंत्री विग्नीशवरन से बातचीत करें.दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि वह राजपक्षे से यह वादा लें कि वह इस देश में 26 सालों तक चले जातीय संघर्ष की विवेचना के लिए गठित आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करेंगे.

Posted By: Subhesh Sharma