दास्तान कहानी है उनकी जिन्होंने गुमनामी के अंधेरों से बाहर निकलकर रियो ओलंपिक का सफर तय किया है। अनजानी जगहों से निकले ये खिलाड़ी ओलंपिक में भारत की आस हैं। जो जिंदगी की तमाम दुश्वारियों को पीछे छोड़कर नई इबारत लिखने को बेताब हैं। यह दास्तान है कोयला खदान मजदूर की बेटी तीरंदाज लक्ष्मीरानी माझी की।

फुटबॉल से तीरंदाजी तक
साल 2002, कोई तीरंदाजी सीखना चाहेगा। सवाल सुनकर बगुला के सरकारी स्कूल में विद्यार्थियों के बीच पल भर की खामोशी छा गई। फिर उनके बीच से लक्ष्मी का हाथ ऊपर उठा। स्कूल में फुटबॉल खेलने वाली लक्ष्मी को तीरंदाजी के बारे में ज्यादा मालूम नहीं था। वह राह तलाश रही थी। कोयला खदान में काम करने वाले अपने पिता और परिवार की जिंदगी बदलने की। जिसके साथ खुद उसकी जिंदगी भी बदल जानी थी।
 
विश्व तीरंदाजी में सिल्वर
संथाल आदिवासी परिवार में जन्मी लक्ष्मी की राह मुश्किल थी। वह उस समाज से आती थी जिसमें आदिवासी लड़की का स्कूल जाना ही बड़ी बात थी। पिता अपने बेटी को घर से बाहर भेजने में हिचकिचा रहे थे। लक्ष्मी की मां ने उन्हें मनाया। आखिरकार वह जमशेदपुर स्थित टाटा आर्चरी अकादमी आ पहुंची। वक्त ने करवट ली थी। मलेशिया में अपने पहले ही अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में लक्ष्मी ने सिल्वर मेडल जीता। उसकी कामयाबी का सिलसिला यहीं नहीं रूका। उसके तीर एक के बाद एक निशाने पर लगते गए। 2015 में विश्व तीरंदाजी चैपिंयनशिप में सिल्वर मेडल जीतकर उसने रियो ओलंपिक का टिकट पक्का कर लिया।    
यूनिसेफ की 15 'गर्ल स्टार्स' में एक
लक्ष्मीरानी माझी अब भारतीय रेलवे में काम करती है। उसके पिता अब कोयला खदान में काम नहीं करते हैं। वह यूनिसेफ की 15 ‘गर्ल स्टार्स’ में से एक है। जिसे 2008 में यूनिसेफ ने अपने कैलेंडर में जगह दी। उसकी कहानी अब बाकी लड़कियों को प्रेरित करने के काम आ रही है।
नोट: यह दास्तान लक्ष्मी देवी रानी के विभिन्न साक्षात्कारों व समाचारों पर आधारित है।

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Posted By: Abhishek Kumar Tiwari