दिल्ली के बदलते रंग इसकी सवारियों के संग
1911 में जब दिल्ली देश की राजधानी घोषित हुई तब इस शहर की अबादी कुल ढाई लाख थी। चौड़े-वीरान रास्ते, चारों तरफ़ खुली जगह और धीमी गति से खिसकता शहर एक आम नज़ारा था।
1864 में पहली रेल1864 में दिल्ली-कलकत्ता के बीच शुरु हुई पहली रेल ने दिल्लीवालों के लिए दूरदराज़ के रास्ते खोले लेकिन आमतौर पर घोड़े, ऊंट, तांगे, ठेले, साइकिलें या दो पैरों का साथ ही आम आदमी की सवारी थी। ये वो दौर था जब आदमियों को ढोती सवारियों से ज़्यादा गाड़ियों-बग्गियों को ढोते आदमी नज़र आते थे.
चौपहिया वाहनों यानि कारों का इस्तेमाल दिल्ली में उन दिनों बेहद कम था, भले ही 19वीं सदी के उस दौर में पेट्रोल की कीमत आठ आना प्रति गैलन और तेल की कीमत 2.8 आने रही हो!
समय के साथ अंग्रेज़ अधिकारियों और भारतीय राजाओं ने अपने इस्तेमाल के लिए सुंदर-बेजोड़ गाड़ियां दिल्ली की सड़कों पर उतारीं। 1911 के बाद दिल्ली में गतिविधियों के एक नए दौर की शुरुआत हुई। दिल्ली दरबार की शान बढ़ाने के लिए कई बड़े कार निर्माताओं ने दिल्ली
के बाज़ारों का रुख किया. 1911 में दिल्ली में भव्य स्तर पर शुरु हुए निर्माण कार्यों में मदद के लिए शहरभर में रेलवे लाइन बिछाई गईं.
राजधानी के तौर पर नई दिल्ली में जब भव्य स्तर पर निर्माण कार्य शुरु हुए तब अलग-अलग इलाकों से निर्माण सामग्री और मज़दूरों को लाने ले जाने के लिए शहरभर के भीतर जगह-जगह रेलवे लाइन बिछाई गईं।
दिल्ली के बीचों-बीच कनॉट-प्लेस के नज़दीक बाराखम्बा इलाके में इन रेल के डिब्बों की मरम्मत और इनके रखरखाव के लिए एक सर्विस स्टेशन भी बनाया गया।चार पहियों की एक बग्गी में सवार दिल्ली दरबार के लिए रवाना होते किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी.दिल्ली के बनने के क्रम में अंग्रेज़ अधिकारियों के एक तबके की राय थी कि शहर में आवाजाही को आसान बनाने के लिए इन रेलवे लाइनों को स्थाई कर दिया जाए, लेकिन आम लोगों को शहर भर में घूमती इन रेलों का इस सुझाव रास नहीं आया और इसे तवज्जो नहीं दी गई।उस वक्त शायद ही किसी ने सोचा हो कि एक सदी बाद दिल्ली की ज़मीन और आसमान को चीरती मेट्रो की शुरुआत होगी जो दुनियाभर के लिए दिल्ली की पहचान बन जाएगी।स्थानीय रेल के नाम पर अब दिल्ली में 1982 एशियाड के दौरान चलाई गई रिंग-रेलवे सेवा ही बाकि है जो निज़ामुद्दान से चलती है और गिने-चुने इलाकों से गुज़रती है। इसके मुसाफ़िरों की संख्या आज उंगलियों पर गिनने लायक है।
मुसाफ़िरों के शहर दिल्ली का ऐसा ही एक गुमशुदा अध्याय है यहां चलने वाले ट्राम। कम ही लोग जानते हैं कि 1952 तक कलकत्ता की तरह दिल्ली में भी ट्राम चला करते थे। 1908 में ‘दिल्ली इलेक्ट्रिक ट्रामवेज़ लाइटिंग कंपनी’ ने शहर में ट्राम की शुरुआत की जो 1930 सिविल लाइंस, पुरानी दिल्ली, करोलबाग जैसे कुछ इलाकों में फैल गए। 30 के दशक में ही दिल्ली में बस सेवा शुरु हुई जिसे ट्राम सहित दिल्ली सड़क परिवहन प्राधिकरण के अधीन कर दिया गया.
लेकिन एक सवारी जिसने दिल्ली की सड़कों पर लंबे अरसे तक राज किया वो है तांगा। पुरानी दिल्ली का तुर्कमान गेट इलाका तांगों का गढ़ रहा है। गधेवालों की गली के नाम से मशहूर इस इलाके में रहने वाली रज़िया बेग़म बताती हैं, ''मुग़लों के ज़माने में ये लोग काबुल से यहां आए और ये इलाका गधेवालों के नाम से जाना जाने लगा।
जामा मस्जिद और लाल किला बनने के दौरान पत्थर और बाकि सामान इन खच्चरों पर लाद कर ही लाया जाता था। समय के साथ इन लोगों ने तांगा चलाने का पेशा अपना लिया.''
कहते हैं तांगेवाले असल में मुग़लों के दौर में अपने खच्चर लेकर काबुल से दिल्ली आए थे और बाद में उन्होंने तांगे का पेशा अपनाया.
1927 में दिल्ली में पहला एयर शो हुआ। इस शो में हिस्सा लेने के लिए खुद लॉर्ड और लेडी इरविन आए। लॉर्ड इरविन (आगे की कतार में दांए से चौथे) 'लाल-परी' से 'ब्लू लाइन' तकदिल्ली शहर में आवाजाही और परिवहन का नक्शा तेज़ी से बढ़ती आबादी और 90 के दशक में उदारीकरण के बाद नए अवसरों के पैदा होने से भी बदला। देशभर से लोग दिल्ली आए और उनमें से कई यहीं बस गए। दिल्ली का ये विस्तार सड़कों पर भी दिखा और रिंग-रोड के बाद बाहरी रिंग रोड से भी जब काम नहीं चला तो एक बाहरी-बाहरी रिंग रोड बनाने की नौबत आ गई।लेकिन शहर में बढ़ते अवसरों का बोझ उठाने के लिए दिल्ली के पास सीमित संख्या में मौजूद खस्ताहाल बसों के अलावा कुछ नहीं था। दफ़्तरों और स्कूलों के समय बसों से लटके लोग दिल्ली का आम नज़ारा रहे हैं।इस दौरान दिल्ली में शुरु हुई रेड-लाइन बस सेवा जिसका नाम बड़े चाव से 'लाल-परी' रखा गया। ये बसें जब सड़क हादसों के चलते कुख्यात हुईं तो इन्हें सड़कों से हटा दिया गया और ब्लू लाइन के नाम से नई सेवा शुरु की गई। हालांकि दिल्ली की ब्लू लाइन बसों ने भी 'सड़कों पर खूनी अध्याय लिखा' और फिर इन्हें बंद कर मौजूदा लो-फ्लोर बसें लाई गई हैं।सार्वजनिक परिवहन की इस कमी की भरपाई के लिए शहर में आज गाड़ियों की बाड़ सी है। रही-सही कसर पूरी करते हैं औद्दोगिक इकाईयों के मालवाहक टैंपो, जुगाड़ गाड़ियां, ट्रैकटर और चट्टानों की तरह सामान से लदे ठेले और रिक्शे।27 तरह के यातायात साधनएक सरकारी संस्था के आंकलन के मुताबिक देश की राजधानी में सड़कों पर कुल 27 तरह के यातायात साधन वक्त और जगह से एक साथ लड़ते देखे जा सकते हैं.
1918 में दिल्ली के विलिंग्डन हवाई अड्डे पर पहला डाक-वाहक विमान उतरा। ये विमान आज दिल्ली एरो क्लब के दफ़्तर में सुरक्षित है.'दिल्ली मेट्रो-मेरा मेट्रो'इतिहासकार नारायनी गुप्ता का मानना है कि दिल्ली मेट्रो ने इस शहर को आवाजाही का एक ऐसा साधन दिया है जिसने वर्गभेद को भी मिटा दिया है। बसों में जहां एक ओर कम-आय वर्ग के लोग ही सफ़र करते थे वहीं टैक्सियां और ऑटो मज़बूत जेब वालों के लिए रहे।ऐसे में ट्रैफिक से बचने और समय की पाबंदी के ललाच में दिहाड़ी मज़दूर से लेकर कंपनियों के मैनेजर तक मेट्रो में सवार दिखते हैं।वो कहती हैं, ''अब लोग आसानी से दिल्ली के आसपास नोएडा, गुड़गांव, ग़ाज़ियाबाद में रह सकते हैं और काम के लिए दिल्ली आ-जा सकते हैं। इससे न सिर्फ़ इस शहर पर लोगों का बोझ कम होगा बल्कि आसपास के इलाकों में विकास की नई लहर फूटेगी। मेट्रो के ज़रिए आने वाले साल दिल्ली के लिए कई बदलाव लेकर आ सकते हैं.''1864 में रेल से 2002 में मेट्रो-रेल तक का सफ़र तय कर चुके इस शहर की रफ़्तार कभी थमी नहीं है। लेकिन मुंबई की तरह दिल्ली बेपरवाह और अपनी धुन में इठलाता शहर नहीं है।ये शहर अपने दर पर आने वाले हर नए शख्स के लिए दो घड़ी रुकने-ठहरने का समय रखता है और फिर कुछ उसके रंग में खुद को रंगकर कुछ उसे अपने रंग से रंगीन कर आगे बढ़ जाता है