- 10वें फिल्म फेस्टिवल के दौरान ऑर्गेनाइज हुआ पैनल डिस्कशन

- मंडे को ऑर्गेनाइज होगी फिल्म फेस्टिवल की क्लोजिंग सेरेमनी

द्दह्रक्त्रन्य॥क्कक्त्र : फिल्म और सेंसरशिप का चोली दामन का साथ है। फिल्में बनने के साथ ही उसे लोगों तक पहुंचाने के बीच में सेंसर की कैंची चलाना जरूरी हो जाता है। ऐसे में फिल्म में चुने गए टॉपिक से जुड़े कई अहम मुद्दे बीच में ही अपना दम तोड़ देते हैं। यहां तक तो ठीक है। सरकारी सेंसरशिप के बाद फिल्मसाजों को दो अलग तरह की सेंसरशिप से होकर गुजरना पड़ता है। इसमें एक सामाज में मौजूदलोगों की और तीसरी सबसे खतरनाक सेंसरशिप उन लोगों की है, जो पीछे के दरवाजे इन सामाजिक मुद्दों को लोगों के बीच आने ही नहीं देना चाहते। सबसे पहले इस 'तीसरी' सेंसरशिप से निपटने की जरूरत है। इसके लिए लोगों को खुद ही आगे आना पड़ेगा। यह बातें सामने आई गोकुल अतिथि भवन में संडे को ऑर्गेनाइज हुए पैनल डिस्कशन में, जिसमें दिग्गजों ने अपनी बातें बड़ी बेबाकी के साथ कहीं। 10वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल 'मीडिया और सिनेमा में लोकतंत्र और सेंसरशिप' टॉपिक पर ऑर्गेनाइज इस प्रोग्राम में फिल्म मेकर संजय काक, अजय टीजी, विक्रमजीत गुप्ता, नकुल साहनी, पवन श्रीवास्तव के साथ फिल्म एडिटर तरुण भारतीय और मीडिया पर्सन पंकज श्रीवास्तव ने हिस्सा लिया।

'उन्होंने' कह दिया गलत तो गलत

आज के दौर में जो भी चाहे किसी भी फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा सकता है। बस उसे लोकल पुलिस स्टेशन पर जाकर सिर्फ इतना कहना है कि 'यह फिल्म हमारी भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती हैं, इसके विरोध में हम प्रदर्शन करेंगे'। इस पर फिल्मासाजों को और फिल्म देखने वालों को सिक्योरिटी देने के बजाए पुलिस प्रशासन उन फिल्मों को बंद करने के आदेश दे देता है। ऐसे में असामाजिक तत्वों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं। इसके विरोध में अभियान चलाने की जरूरत है। यह सिर्फ फिल्म बनाने वाले या फिर दिखाने वाले का अभियान नहीं होना चाहिए, बल्कि इसके लिए जरूरी है कि दर्शक भी ऐसे हों जो उनके सामने डटकर कहें कि हमें यह फिल्म देखनी है, यह उनका हक है। वह यह हक किसी को भी न दें कि कोई उन्हें बताए कि कौन सी फिल्म देखें और कौन सी न देखें। इस दौरान फिल्मसाजों ने फिल्म मेकिंग के दौरान सामने आने वाली प्रॉब्लम्स भी शेयर कीं।

प्रगतिशील रचनाओं की शानदार विरासत से रूबरू हुए दर्शक

समन हबीब और संजय मट्टू की 'आसमान हिलता है जब गाते हैं हम' के जरिए प्रगतिशील-लोकतांत्रिक रचनाओं की साझी विरासत बड़े ही पावरफुल तरीके से सामने आई। इसने लोगों को न सिर्फ प्रगतिशील रचनाकारों की रचनात्मक प्रतिभा और उनके सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से बावस्ता कराया, बल्कि इसका भी अहसास कराया कि उस दौर में सवाल उठाए गए थे, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। भोजपुरी हिंदी में बनाई गई पवन कुमार श्रीवास्तव की फिल्म 'नया पता' भोजपुरी सिनेमा में नएपन की दस्तक की तरह लगी। अजय टी जी की दस्तावेजी फिल्म 'पहली आवाज' और बिक्रमजित गुप्ता की फिल्म 'अचल' भी दिखाई गई। 10वें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन की शुरुआत बच्चों के सेशन से हुई। प्रोफेसर बीरेन दास शर्मा ने ऑडियो-विजुअल्स की हेल्प से बाइस्कोप से लेकर सिनेमा के विकास की कहानी से बच्चों को रूबरू कराया। इस दौरान बड़ी तादाद में लोग मौजूद रहे। मंडे को फिल्म फेस्टिवल की क्लोजिंग सेरेमनी ऑर्गेनाइज होगी।