उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इतने अच्छे अंकों की वजह से वो अपने परिवार में पहले डॉक्टर बन ही जाएंगे. वो चीनी समुदाय से हैं.

उन्होंने मेडिकल स्कूल में आवेदन दिया लेकिन सरकारी विश्वविद्यालय से उन्हें दाख़िले की पेशकश नहीं मिली.

सोह बून खांग कहते हैं, "मैं बेहद हताश और दुखी हूं. मैं रोया क्योंकि मुझे लगता था कि पढ़ाई में मेरे जैसे अच्छे छात्र को मौक़ा ज़रूर मिलेगा."

वहीं हानी फ़रहाना को चार में से 3.75 अंक मिले और उन्हें मेडिकल स्कूल में दाख़िला मिल गया.

फ़रहाना मलेशिया के बहुसंख्यक मलय समुदाय से हैं जिन्हें 'भूमिपुत्र' यानी स्थानीय समुदाय के लोग भी कहा जाता है.

उनका कहना है कि उनके कुछ ग़ैर-भूमिपुत्र दोस्तों को उनसे अच्छे अंक मिले थे लेकिन उन्हें सरकारी विश्वविद्यालयों में दाख़िला नहीं मिला.

फ़रहाना कहती हैं, "आज़ादी के वक़्त से ही सामाजिक अनुबंधों में ये कहा गया है कि मलयों को विशेष सुविधाएं मिलेंगी जबकि ग़ैर-मलय लोगों के पास नागरिकता है."

मलेशिया में भारतीय मूल के छात्रों को दाख़िला नहीं?

फ़रहाना कहती हैं, "आज़ादी के वक़्त से ही सामाजिक अनुबंधों में ये कहा गया है कि मलयों को विशेष सुविधाएं मिलेंगी जबकि ग़ैर-मलय लोगों के पास नागरिकता है."

-मलेशिया विश्वविद्यालय

मलेशिया में 60 फीसदी लोग बूमिपुतरा हैं, 23 फीसदी चीनी मूल के हैं और सात फीसदी भारतीय मूल के हैं

हालांकि वो ये भी कहती हैं कि उन्होंने कड़ी मेहनत की थी और वो दाख़िले की हक़दार थीं.

'कुछ टूट गया है'

मलेशिया में 60 फ़ीसदी लोग भूमिपुत्र हैं, 23 फ़ीसदी चीनी मूल के हैं और सात फ़ीसदी भारतीय मूल के हैं. बाक़ी लोग अन्य नस्लों के हैं.

क्योंकि भूमिपुत्र पारंपरिक रूप से शिक्षा और व्यापार में पीछे रहते हैं, उन्हें राष्ट्रीय नीतियों के तहत सस्ते घर और सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता मिलती है.

मलेशिया में सरकारी विश्वविद्यालयों में पहले भूमिपुत्र को आरक्षण मिलता था लेकिन इस व्यवस्था को साल 2002 में ख़त्म कर दिया गया.

तभी से मलेशिया के शिक्षा मंत्रालय का कहना है कि वहां प्रतिभा के आधार पर दाख़िला मिलता है.

मलेशिया में भारतीय मूल के छात्रों को दाख़िला नहीं?

हालांकि अल्पसंख्यक समुदाय इस पर सवाल उठाते हैं.

इसी महीने शैक्षणिक साल शुरू हुआ है और सरकारी विश्वविद्यालयों की 41,573 सीटों में से 19 फ़ीसदी चीनी मूल के लोगों को और चार फ़ीसदी भारतीय मूल के मिली हैं. बाक़ी सीटों पर भूमिपुत्रों को दाख़िला मिला.

मलेशियन इंडियन कांग्रेस के सांसद जसपाल सिंह इसे कई दशकों में सबसे ज़्यादा भेदभावपूर्ण दाख़िला बताते हैं. उनकी पार्टी सत्तारूढ़ बरिसन नेशनल गठबंधन में शामिल है.

चीनी मूल के प्रतिनिधियों का कहना है कि इसी दौरान चीनी मूल के छात्रों को दाख़िला एक तिहाई कम हो गया.

जसपाल सिंह का कहना है, "इस साल पूरे चार अंक पाने वाले कई छात्रों को भी उनकी पसंद के कोर्स में दाख़िला नहीं मिला या कहीं दाख़िला नहीं मिला."

उन्हीं की पार्टी के नेता और उप शिक्षा मंत्री पी कमलानाथन इस बात की पुष्टि नहीं करते कि साल 2002 से चीनी और भारतीय मूल के छात्रों की संख्या कम हुई है या नहीं.'भेदभाव नहीं'

"इस साल पूरे चार अंक पाने वाले कई छात्रों को भी उनकी पसंद के कोर्स में दाखिला नहीं मिला या कहीं दाखिला नहीं मिला."

-जसपाल सिंह, सीनेटर, मलेशिया

वो कहते हैं, "विश्वविद्यालयों में चीनी समुदाय की सफलता की दर देश में सबसे ज़्यादा है."

उनका तर्क है कि कुछ छात्र छूट गए क्योंकि चीनी और भारतीय मूल के छात्रों के पसंदीदा पाठ्यक्रमों में सीमित स्थानों के लिए ज़्यादा प्रतियोगिता थी.

सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि इस साल दंत चिकित्सा कार्यक्रम की हर सीट के लिए 10 आवेदन थे.

कमलानाथन कहते हैं कि पूरे अंक पाने वाले कुछ छात्रों ने उन पाठ्यक्रमों में दाख़िला लेने से इनकार कर दिया जो उनकी पसंद के नहीं थे.

कमलानाथन का दावा है कि सिर्फ़ शैक्षणिक प्रदर्शन ही मायने नहीं रखता, 90 फ़ीसदी महत्व अंकों को मिलता है और बाक़ी 10 फ़ीसदी महत्व पाठ्यक्रम के अतिरिक्त के अंकों को मिलता है.

छात्रों का आवेदन तब भी ख़ारिज हो सकता है अगर वो इंटरव्यू में अच्छा प्रदर्शन न करें.

लेकिन मलेशियन चीनी एसोसिएशन यानी एमसीए पार्टी के चोंग सिन वून का कहना है कि स्कूलों में अंक देने की प्रक्रिया में बड़ी गड़बड़ी है जिससे ये लगता है कि चीनी और भारतीय मूल के छात्रों को दाख़िले के लिए ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है.

'चीनी समुदाय पर पलटवार'

"अगर मुझे पढ़ाई पूरी करने के बाद विदेश से नौकरी की पेशकश मिली तो मैं मलेशिया छोड़ दूंगा क्योंकि ये देश मेरी कद्र नहीं करता."

-सोह बून खांग, चीनी मूल के छात्र

चोंग कहते हैं, "साफ़ है कि विश्वविद्यालय में दाख़िले से पहले ही ये भेदभावपूर्ण है.

मई में हुए आम चुनाव में कमज़ोर प्रदर्शन के लिए प्रधानमंत्री नजीब रज़ाक ने 'चीनी सूनामी' को ज़िम्मेदार ठहराया था. उनका मतलब चीनी मूल के लोगों के विपक्ष को समर्थन देने से था.

चोंग सिन वून का कहना है कि सरकारी विश्वविद्यालयों में चीनी मूल के लोगों की कम संख्या को लोग चीनी समुदाय पर पलटवार की तरह देख रहे हैं.

एमसीए को सत्ताधारी गठबंधन में चीनी समुदाय का पक्षधर समझा जाता है. इस पार्टी को संसद में आधी सीटें गंवानी पड़ी.

आज़ादी के बाद पहली बार कैबिनेट में एमसीए का कोई सदस्य नहीं है.

नजीब रज़ाक ने कहा है कि वो प्रभावित छात्रों की मदद करेंगे लेकिन चीनी और भारतीय मूल में असंतोष की भावना को दूर करने के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया.

इस बीच, दाख़िला न मिलने के ख़िलाफ़ सोह बून खांग की अर्ज़ी अब भी अटकी हुई है लेकिन उन्होंने निजी संस्थान में दाख़िले का फ़ैसला ले लिया है.

उनका कहना है, "अगर मुझे पढ़ाई पूरी करने के बाद विदेश से नौकरी की पेशकश मिली तो मैं मलेशिया छोड़ दूंगा क्योंकि ये देश मेरी क़द्र नहीं करता."

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