लेकिन ख़ुद दीनानाथ बत्रा और उनके ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ को कभी भी वही एक काम बार-बार करते हुए दुहराव की ऊब और थकान नहीं होती.

इसीलिए कुछ वक्त पहले वेंडी डोनिगर की किताब ‘एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुइज्म’ के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर करके और प्रकाशक पर लगातार उसे वापस लेने का दबाव डाल कर दीनानाथ बत्रा के ‘आंदोलन’ ने जब पेंगुइन जैसे बड़े प्रकाशक को मजबूर कर दिया कि वह उस किताब की बची प्रतियों की लुगदी कर डाले और भारत में उसे फिर न छापे, तो आपत्ति की आवाजें उठीं लेकिन उसके कुछ वक्त बाद ही जब उन्होंने ‘ओरिएंट ब्लैकस्वान’ को 2004 में छापी गई शेखर बंदोपाध्याय की किताब 'फ़्रॉम प्लासी टू पार्टिशन: ए हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया' पर क़ानूनी नोटिस भेज दिया और उस दबाव में मेघा कुमार की किताब (कम्यूनलइज़्म एंड सेक्सुअल वॉयलेंस सिंस 1969), कई और किताबों के साथ, रोक ली गई तो कोई प्रतिवाद नहीं सुनाई पड़ा. यानी आख़िरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार थक गए लगते हैं.

राजनीतिक वातावरण

क्या थक गए हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार?

दीनानाथ बत्रा स्कूल की किताबों में भी बदलाव करवा चुके हैं.

राजनीतिक वातावरण भी अब उनके पक्ष में नहीं है. समाचार पत्रों ने इस बार न तो सम्पादकीय लिखे न सम्पादकीय पृष्ठ पर इसके बारे में लेख प्रकाशित किए. टेलीविज़न चैनलों के लिए यह चर्चा का विषय नहीं बन सका.

कई कोनों से प्रकाशकों को मशविरे दिए जा रहे हैं कि वे क़ानूनी नोटिस को ग़ैरज़रूरी महत्व न दें, उससे डरें नहीं और हिम्मत के साथ मुक़दमे का सामना करें, मैदान न छोड़ दें. लेकिन बत्रा के ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ का अनथक अभियान सिर्फ़ एक मशहूर किताब तक सीमित नहीं.

उनका ध्यान मामूली लगने वाली स्कूली किताबों पर भी उतना ही है जितना डोनिगर या मेघा कुमार की किताबों पर. कुछ वक्त पहले उन्होंने एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्) की किताबों से उनके हिसाब से तक़रीबन बहत्तर ‘आपत्तिजनक अंशों’ को निकलवाने में अदालत के रास्ते सफलता हासिल की थी. उसी तरह उनके एक मुक़दमे ने दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी शक्तिशाली संस्था को एके रामानुजन का निबंध पाठ-सूची से हटाने को बाध्य कर दिया था.

इस तरह के हर मामले में तर्क यह दिया जाता है कि हमें और भी महत्वपूर्ण काम करने हैं, कौन इस झंझट में ऊर्जा नष्ट करे! कहा जाता है कि आख़िर इतना कुछ और पढ़ने को है, अगर यही एक किताब न पढ़ी, यही पाठ नहीं पढ़ा, यही अंश नहीं पढ़ा तो कौन-सा क़हर टूट पड़ेगा! और इस तर्क की आड़ में कोई किताब, कोई लेख, कोई कविता आपत्तिजनक या विवादग्रस्त बना दी जाती है और फिर हटा दी जाती है.

माना जाता है कि शिक्षा को विवादमुक्त रहना चाहिए. इसलिए जैसे ही बत्रा किसी रचना, पुस्तक के किसी अंश पर ऐतराज़ जताते हैं वह विवादग्रस्त बन जाती है और संस्थाएँ उससे पीछा छुड़ाने की जुगत में लग जाती हैं.

बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया

क्या थक गए हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार?

वेंडी डॉनिगर की किताब को दीनानाथ बत्रा की आपत्ति के बाद प्रकाशक ने वापस ले लिया था.

2014 बत्रा के राष्ट्रवादी सांस्कृतिक अभियान के लिए सबसे उपयुक्त राजनीतिक समय है. एक व्यापक राष्ट्रवादी सहमति पूरे देश में व्याप्त है. और बत्रा ने मुनासिब मौक़ा देखकर उस मोर्चे पर हमले की शुरुआत कर दी है जिसे आख़िरी तौर पर फ़तह करना उनके लिए सबसे ज़रूरी है.

उन्होंने नई सरकार बनते ही एनसीईआरटी को पूरी तरह पुनर्गठित करने, उसके द्वारा संचालित पाठ्यचर्या की समीक्षा की प्रक्रिया को रोक कर नए ढंग से उसे शुरू करने की मांग कर डाली है.

अब तक उदार जनतांत्रिक बुद्धिजीवियों की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. वे शायद इंतज़ार कर रहे हैं कि सरकार कोई निर्णय ले, लेकिन इस मसले पर बात करना हम सबके के लिए और हमारे करोड़ों बच्चों के लिए बहुत अहम है.

यह समझना ज़रूरी है कि स्कूल की पाठ्यचर्या निर्माण या उसकी समीक्षा दरअसल एक अकादमिक कार्य है और इसमें सर्वोत्तम निर्णय पेशेवर रूप से दक्ष विशेषज्ञ ही कर सकते हैं. यह मसला वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ की शब्दावली में नहीं समझा जा सकता.

एनसीईआरटी ने 2005 में जो स्कूली पाठ्यचर्या निर्मित की, वह धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रादायिकता के विवाद से अलग हट कर उस शैक्षिक सैद्धांतिक आधार की घोषणा करती है जो बच्चों की शिक्षा के लिए सबसे कारगर हो सकती है.

इस प्रक्रिया के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर यशपाल ने अपनी भूमिका में साफ़ लिखा था, “यह ज़रूरी है कि हम अपने बच्चों को समझ का स्वाद दें. इसके सहारे वे सीख पायेंगे और अपना ज्ञान रच सकेंगे. समझ का यह स्वाद या चस्का उनके वर्तमान को अधिक परिपूर्ण, रचनात्मक और आनंददायी बना सकेगा.”

बच्चों का भविष्य

क्या थक गए हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार?

यह पाठ्यचर्या बच्चों को सिर्फ़ भविष्य का नागरिक न मान कर उनके वर्तमान को आदर देती है. उसके निर्देशक सिद्धांत हैं: 1. ज्ञान को स्कूल के बाहर की दुनिया से जोड़ना, 2. सीखने की प्रक्रिया को रटंत विद्या से अलग करना, 3. पाठ्यचर्या को इस तरह समृद्ध करना कि वह पाठ्यपुस्तक तक ही सीमित न रहे, 4. परीक्षा प्रणाली को लचीला बनाते हुए उसे कक्षा की नियमित प्रक्रिया में ही गूंथना, 5. भारतीय जनतंत्र के भीतर एक संवेदनशील पहचान को पल्लवित होने में सहायता करना.

स्कूली पाठ्यचर्या की यह प्रक्रिया अनूठी थी क्योंकि इसने शिक्षा जगत के भीतर सैद्धांतिक बहस को जन्म दिया. पहली बार शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांतों पर बहस हो रही थी. एनसीईआरटी विश्वासपूर्वक कह सकती थी कि वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय के नोट पर नहीं, अपने शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांत पर अपने काम करती है.

स्कूली किताबें न तो राष्ट्रवादी और न धर्मनिरपेक्ष आधार पर बन रही हैं. वे एक ठोस रचनावादी शिक्षाशास्त्रीय आधार पर बनाई जा रही हैं जिन्हें विषयों के और स्कूली शिक्षा के विशेषज्ञ निर्मित कर रहे हैं.

दूसरे, यह पाठ्यचर्या शिक्षक को केन्द्रीय नियन्त्रण से आज़ाद करने की चुनौती ले कर चलती है, कहती है कि उसका काम मात्र पाठ्यपुस्तक को छात्र तक पहुंचाने वाले डाकिये का नहीं है. पाठ्यचर्या की भी एक अधिक खुली समझ विकसित करने की चुनौती इस दस्तावेज़ ने पेश की.

2005 में प्रस्तावित की गई यह पाठ्यचर्या अभी भी स्कूली शिक्षा जगत में चर्चा का विषय है. इसकी नवीनता की उत्तेजना अभी भी बरक़रार है.

इसके सहारे भारत के अनेक राज्यों ने अपनी पाठ्यचर्या बनाने का उद्यम पहली बार किया क्योंकि इस दस्तावेज़ ने कहा कि बेहतर हो कि पाठ्यचर्या निर्माण का काम स्कूल स्तर तक विकेन्द्रित कर दिया जाए. आख़िर एक ही पाठ्यक्रम दिल्ली और दल्ली राजहरा (छतीसगढ़) के लिए समान रूप से कैसे प्रासंगिक होगा!

अकादमिक स्वायत्तता

क्या थक गए हैं अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकार?

2005 की स्कूली पाठ्यचर्या ने विषयों के नवीनतम ज्ञान की चिंताओं के साथ उतने ही ध्यान से आदिवासियों, विविध शारीरिक और अन्य प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहे बच्चों की शिक्षा की चिंताओं के अलावा जेंडर, शान्ति या सामाजिक चिंताओं को पाठ्यचर्या नियोजित करने के आधार के रूप में चिह्नित किया और सांस्कृतिक धरोहर और कला शिक्षा या शारीरिक शिक्षा या कार्य शिक्षा को मुख्य पाठ्यचर्या का अंग बनाने की वकालत की.

एनसीईआरटी का अपना संघर्ष अकादमिक स्वायत्ता हासिल करने का रहा है. क्यों राज्य उसे विश्वशविद्यालयों जैसी आज़ादी देने से घबराता है?

उससे जुड़ा संघर्ष है स्कूली पाठ्यचर्या की बहस को, वह अभी जिस स्तर पर पहुँच चुकी है, उससे और ऊपर ले जाने का. फिर से पुराने राष्ट्रवादी, मूल्यग्रस्त ढर्रे में उसे फंसाने के बत्रा के प्रयासों का कितना प्रतिवाद हमारे उदारवादियों की ओर से होता है, यह देखा जाना शेष है.

क्या वे इस संघर्ष को तमाशाई की तरह देखेंगे, एनसीईआरटी को अकेला छोड़ देंगे या स्वयं भी अपनी भूमिका निभाएंगे?

ध्यान रहे बत्रा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के व्यापक पर्यावरण के अंग हैं. इसलिए बत्रा का प्रभाव मात्र उनका नहीं है.

जिसे भी बत्रा का नोटिस मिलता है, उसे पता है कि कल इस पर्यावरण का कोई और हिस्सा उस पर शारीरिक आक्रमण भी कर सकता है. यह कोई कल्पना नहीं है. यह सब कुछ झेला हुआ यथार्थ है

नई सरकार के बनने के बाद उदार भारत के लिए यह पहली परीक्षा होगी उस जनतांत्रिक स्वभाव की जिसके परिपक्व होने के दावे चुनाव के दौरान और उसके बाद किए जाते रहे हैं. देखें, मैदान में कौन-कौन उतरता है!

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