शिक्षा बचाओ आंदोलन संस्था के अध्यक्ष दीनानाथ बत्रा ख़ुद को किताबों का सोशल ऑडिटर कहते हैं.

बीबीसी हिंदी के साथ फेसबुक चैट में उन्होंने कहा कि जिन किताबों को वो भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा समझते हैं उन पर प्रतिबंध लगवाने की वो कोशिश करते हैं.

इस साल की शुरुआत में दीनानाथ बत्रा ने अमरीकी लेखिका  वेंडी डोनीगर की किताब ‘द हिंदूज़: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को ये कहते हुए क़ानूनी रूप से चुनौती दी थी कि इससे हिंदुओं की भावनाओं को ठेस लगी है.

इसके बाद किताब के प्रकाशक पेंगुइन इंडिया और शिक्षा बचाओ संस्था के बीच अदालत के बाहर हुए एक समझौते के तहत प्रकाशक पुस्तक को  वापस लेने और उसकी बाक़ी बची प्रतियों को नष्ट करने के लिए सहमत हो गया था.

आपत्ति

दीनानाथ बत्रा का कहना है आपत्ति के तीन मापदंड होते हैं. लेखक की मंशा, कंटेट और भाषा और इन तीनों मानदंडों पर उन्हें वेंडी डोनिगर की पुस्तक आपत्तिजनक लगी.

वे कहते हैं कि उन्होंने ये किताब पहले से आखिरी पन्ने तक पढ़ी है.

उन्होंने बताया, “पहली आपत्ति ये है कि वैकल्पिक इतिहास कुछ नहीं होता जबकि किताब का नाम ही वैकल्पिक इतिहास है. किताब के फोल्डर पर नंगी गोपिकाएं हैं जिस पर कृष्ण बैठे हैं. सबसे बड़ी आपत्ति ये है कि इसमें भारत का नक्शा तो है लेकिन इसमें कश्मीर नहीं है. ये देश की एकता और अखंडता पर प्रहार है. पूरी पुस्तक यौन और कामुकता से भरी है.”

वेंडी डोनिगर की किताब के वापस लिए जाने से कई साहित्यकार और लेखक ख़ासे  नाराज़ थे. जाने माने साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने बीबीसी से बातचीत में कहा था कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है.

वहीं साहित्यकार उमा वासुदेव ने बीबीसी से कहा था कि वह किताबों पर किसी भी तरह के प्रतिबंध के पक्ष में तो नहीं हैं लेकिन लेखकों को भी चाहिए कि वे धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचाएं.

मैं किताबों का सोशल ऑडिटर हूँ: दीनानाथ बत्रा

वेंडी डोनिगर की किताब द हिंदूज़: एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री'

दीना नाथ बत्रा के प्रकाशक को क़ानूनी नोटिस देने के बाद वेंडी डोनिगर की किताब बाज़ार से वापस ले ली गई थी.

आलोचना

तो इस तरह से किताबों पर रोक लगाने या वापस लेना क्या  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला नहीं है?

इस बारे में दीनानाथ बत्रा कहते हैं, “भारत स्वतंत्र देश है स्वच्छंदता का देश नहीं है. संविधान की धाराओं के अंतर्गत बात करने की आज़ादी है, स्वच्छंदता नहीं है. कुछ बाधाएं ज़रुर हैं. इससे देश की एकता और अखंडता बरकरार रहनी चाहिए. इस किताब को फ्रीडम ऑफ स्पीच से नहीं जोड़ना चाहिए.”

लेकिन क़ानून का सहारा लेकर किसी प्रकाशक को किसी किताब को वापस लेने या छापने से रोकना कितना सही है? क्या इससे प्रकाशक ख़ौफ़ज़दा नहीं होंगे?

इस पर बत्रा कहते हैं, “मैं पहले समझाऊंगा, पत्र लिखूंगा, लेख लिखूंगा और इससे अगर कोई बात मान ले, तो ठीक है. लेकिन अगर नहीं, तो मैं एक छोटा सा कदम उठाता हूं कि क़ानूनी नोटिस भेज देता हूं जिसकी इजाज़त मुझे क़ानून देता है.”

वे आगे कहते हैं, “नोटिस भेजने से ही अगर लोग डरते हैं तो क्या ये मेरा दोष है? क्या प्रकाशक इतने कमज़ोर हैं कि एक  क़ानूनी नोटिस से डर जाते हैं? अभी एक प्रकाशक ने मेरे नोटिस भेजने के बाद क्यों अपनी सारी पुस्तकों की समीक्षा करनी शुरु कर दी?”

उल्लेखनीय है कि हाल ही में कुछ और प्रकाशकों ने अपनी कुछ किताबों को वापस लिया है.

सेंसरशिप सही?

"शेखर बंधोपाध्याय की किताब में कई गलतियां हैं. उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उग्रवादी संगठन कहा गया. कोर्ट का निर्णय है कि गांधी जी की हत्या में आरएसएस का हाथ नहीं है तो फिर ऐसी बातें किताब में क्यों लिखी गई हैं. ये आपत्ति थी मेरी. कक्षाओं में सौहार्द्र बना रहना चाहिए. भगत सिंह के बारे में ये पढ़ाना कि भगत सिंह आतंकवादी थे....क्या आप पढ़ना चाहेंगे ऐसी चीज़ें"

कुछ समय पहले ही दीनानाथ बत्रा ने ओरिएंट ब्लैकस्वान प्रकाशक को शेखर बंदोपाध्याय की किताब, ‘प्लासी टू पार्टीशन: ए हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ पर एतराज़ जताते हुए क़ानूनी नोटिस भेजा था जिसके बाद प्रकाशक ने कई अन्य किताबों की भी फिर से समीक्षा करने का फ़ैसला किया.

शेखर बंदोपाध्याय की किताब के बारे में दीनानाथ बत्रा कहते हैं, “शेखर बंधोपाध्याय की किताब में कई गलतियां हैं. उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उग्रवादी संगठन कहा गया. कोर्ट का निर्णय है कि गांधी जी की हत्या में आरएसएस का हाथ नहीं है तो फिर ऐसी बातें किताब में क्यों लिखी गई हैं. ये आपत्ति थी मेरी. कक्षाओं में सौहार्द्र बना रहना चाहिए. भगत सिंह के बारे में ये पढ़ाना कि भगत सिंह आतंकवादी थे....क्या आप पढ़ना चाहेंगे ऐसी चीज़ें.”

यहां तक कि ब्लैस्वान ने डॉक्टर मेघा कुमार की किताब, कम्यूनलिज़्म एंड सेक्सुअल वायलेंस: अहमदाबाद सिंस 1969, की बिक्री पर भी फ़िलहाल रोक लगा दी है.

दीनानाथ बत्रा मानते हैं कि इस तरह की सेंसरशिप होनी चाहिए. साथ ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से किसी भी तरह से जुड़े होने से इंकार करते हैं.

सेंसरशिप के बारे में वे कहते हैं, “बिल्कुल होना चाहिए, डिपार्टमेंट है इसका. ज़रुरत नहीं होती तो क्या बनता? मैं सोशल ऑडिट करता हूं इन चीज़ों का. मैं सोशल आडिटर हूं. मैं आरएसएस के साथ नहीं हूं. मेरा संगठन शिक्षा बचाओ आंदोलन है. हमने एक स्वायत्त शिक्षा आयोग बनाया है जिसमें हम शिक्षाविदों से मिलकर तय करेंगे कि किस तरह की शिक्षा मिलनी चाहिए बच्चों को.”

अपनी संस्था के एजेंडा के बारे में उनका कहना है, “हमारे पास छह सूत्री एजेंडा है. पहला, बालक का सर्वागीण विकास- संपूर्ण विकास, दूसरा, चरित्र निर्माण, तीसरा, पर्यावरण का विकास, चौथा, वैदिक गणित के सूत्र, पांचवां, भारतीय भाषाओं का विकास-संस्कृत के अलावा बाकी भाषाएं, और छठा, शिक्षा में राजनीति को रोकना...बल्कि राजनीति में शिक्षा को बढ़ावा. सरकारों के बदलने से पाठ्यक्रम नहीं बदलना चाहिए.”

कुछ साल पहले सलमान रुश्दी की किताब पर ईरान ने पाबंदी लगाई थी. भारत में भी ये किताब बैन है.

फ़ेसबुक पर अभिषेक भारती ने सवाल किया कि किसी किताब पर प्रतिबंध लगाना ही क्या आखिरी उपाय है?

दीनानाथ बत्रा कहते हैं कि उन्होंने संविधान के आधार पर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा, “मेरा तर्क व्यक्तिगत नहीं है. मैंने संविधान की धाराओं के अंतर्गत आपत्ति जताई है. ईरान में मौलवियों ने मज़हब के आधार पर आपत्ति की होगी. मैंने संविधान के आधार पर आपत्ति जताई है.”

साहित्य पर प्रतिबंध के बारे में वे कहते हैं, “साहित्य का मतलब है सत्यम शिवम सुंदरम...जिसमें है वो रहनी चाहिए, बाकी किताबों पर प्रतिबंध होना चाहिए.”

कामसूत्र पर पाबंदी नहीं

मनोविज्ञान की दलील देते हुए वे कहते हैं, “मनोविज्ञान कहता है कि गंदी चीज़ों को देखने से मन कमज़ोर होता है. मन को मज़बूत करने के लिए अच्छी चीज़े देखने और पढ़नी चाहिए. बुराई के साथ लड़ना और संघर्थ करना ज़रुरी है. राज्यसभा ने एक कमिटी बनाई सेक्स एजुकेशन पर...रिपोर्ट दी गई कि टोटल डेवलपमेंट के लिए सेक्स एजुकेशन की ज़रुरत ही नहीं है. शरीर आत्मा बुद्धि का विकास होना चाहिए.”

वे मानते हैं सेक्स एजुकेशन यानी यौन शिक्षा 19 साल के बाद शुरु होनी चाहिए.

लेकिन वेंडी डोनिगर की किताब पर यौन और कामुकता का आरोप लगाने वाले दीनानाथ बत्रा कामसूत्र पर पांबदी के ख़िलाफ़ हैं.

वे कहते हैं, “कामसूत्र पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए क्योंकि वो प्राकृतिक इंसटिक्ट है. ये किताब आयु के आधार पर पढ़ी जानी चाहिए. बच्चों को नहीं पढ़नी चाहिए. 19 साल के बाद जब उसमें विवेक जागृत हो जाए तब वो पढ़ सकता है.”

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