यह वही शहर है जहाँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में 'ख़िलाफ़त आंदोलन' को बल मिला था और जहाँ के नामचीनों में शिबली नोमानी, राहुल सांकृत्यायन और कैफ़ी आज़मी जैसे लोग शामिल हैं.

लेकिन पिछले कई वर्षों से  आज़मगढ़ का नाम कुछ दूसरी वजहों से सुर्ख़ियों में रहा है.

मुंबई अंडरवर्ल्ड से कथित रिश्ते, हवाला का कथित गढ़, हरकत-उल-जेहाद-इस्लामी की कथित नर्सरी और इंडियन मुजाहिदीन नामक प्रतिबंधित चरमपंथी संगठन में काम करने वाले कथित युवाओं को भर्ती करने का इलाक़ा.

इस तरह के कई और आरोपों से जूझ रहे आज़मगढ़ का ज़िक्र अख़बारों की सुर्ख़ियों में पहली बार 1993 के मुंबई बम धमाकों के बाद आया था.

हालांकि भारत में कथित रूप से काम करने वाले कई धार्मिक चरमपंथी संगठनों और उन पर होने वाली कार्रवाई के लिहाज़ से एक प्रमुख वारदात 2001 की है.

फ़हीम की कहानी

फ़हीम अहमद ख़ान आज़मगढ़ शहर के बीचों बीच बसे रसाद नगर मोहल्ले के रहने वाले हैं.

आज़मगढ़: '13 वर्ष बाद भी नहीं जाता मार का दर्द'

फ़हीम दुबई में अपने पिता के साथ कपड़े का व्यापार करते थे और किसी बीमारी के इलाज के सिलसिले में जुलाई, 2001 को मुंबई पहुंचे थे.

इलाज कराकर आज़मगढ़ पहुंचे 10 ही दिन हुए थे कि एक शाम इनकी सुज़ुकी मोटरसाइकिल को एक सूमो ने शहर की टेड़िया मस्जिद के पास हल्की टक्कर मारी.

इससे पहले कि फ़हीम उठ कर संभल पाते, सूमो से निकले पांच सादी वर्दी में सुरक्षाकर्मियों ने इनकी आँखों पर पट्टी बाँधी, गाड़ी में लादा और चलते बने.

फ़हीम को लगा कि उनका अपहरण किया गया है.

उन्होंने बताया, "मुझे लगा कि ये लोग मेरे घर वालों से फ़िरौती मागेंगे. लेकिन घंटों तक गाड़ी में चलने के बाद जब मेरी आँखों से पट्टी हटी तो बताया गया कि हम अयोध्या में हैं और पूछा गया कि मैं  लश्कर-ए तैयबा नामक चरमपंथी संगठन के साथ कब से जुड़ा."

इस बीच फ़हीम के घर वालों ने परेशान होकर उनके गुमशुदा होने की एफ़आईआर दर्ज करा दी. प्रदेश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों को फ़ैक्स कर दिए और शहर में प्रदर्शन शुरू हो गए.

"घंटों तक गाड़ी में चलने के बाद जब मेरी आँखों से पट्टी हटी तो बताया गया कि हम अयोध्या में हैं और पूछा गया कि मैं लश्कर-ए तैयबा नामक चरमपंथी संगठन के साथ कब से जुड़ा."

-फ़हीम अहमद ख़ान, निवासी, आज़मगढ़

एक समुदाय के लोगों को सड़कों पर उतरते देख नगर प्रशासन ने फ़हीम के परिवार से संपर्क किया और बताया कि उनका इससे कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि फ़हीम को लखनऊ से आई स्पेशल टास्क फ़ोर्स यानी एसटीएफ़ की टीम ने हिरासत में लिया है.

ग़लतफ़हमी

फ़हीम आज भी वर्ष 2001 में अपने साथ घटी उस घटना को सोच कर भावुक हो जाते हैं.

उन्होंने कहा, "मुझे पूरी रात टॉर्चर किया गया लेकिन जब मैं बेगुनाह था तो क्या बता सकता था. दरअसल एसटीएफ़ इमरान नाम के एक शख़्स की तलाश में थी और मुझे ग़लती से उठाया गया. बाद में पुलिस वालों और राष्ट्रीय मानवाधिकार ने भी इसे माना और मेरे ख़िलाफ़ एक भी आरोप नहीं तय किए गए."

वो कहते हैं, "लेकिन तब पड़ी पुलिस की मार का दर्द कभी नहीं जाता. आज भी मेरे घुटनों में दर्द रहता है, चलने में दिक़्क़त होती है. उस एक हफ़्ते ने मेरी ज़िंदगी बदल डाली".

आज़मगढ़ में कई ऐसे मामले हैं जिनमें कई युवाओं को पिछले एक दशक के दौरान पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया और बाद में बिना किसी आरोप के रिहा कर दिया गया.

खुद फ़हीम के पक्ष में लिखी गई अपनी रिपोर्ट में एनएचआरसी ने 25,000 रुपए का मुआवज़ा दिए जाने की बात लिखी.

इन दिनों आज़मगढ़ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पद पर आसीन अनंत देव भी मानते हैं कि ज़िले में सभी को एक तराजू में तौलना ठीक नहीं.

गुमराह

आज़मगढ़: '13 वर्ष बाद भी नहीं जाता मार का दर्द'

उन्होंने बताया, "एक-आध लोग ज़रूर गुमराह हो जाते हैं लेकिन मैं ये कह सकता हूँ कि 98-99 प्रतिशत लोगों का इन तमाम संगठनों से ताल्लुक ही नहीं है. ज़िले में क्राइम का रेट भी वैसा ही है जैसा पूर्वांचल के अन्य हिस्सों में है. और कभी  आज़मगढ़ में आतंक से जुड़ी कोई घटना भी नहीं घटी".

बहरहाल गर्मी की एक शाम में बैठकर चाय और समोसों पर बात करते वक़्त फहीम को लगता है कि एक दशक के बाद नई सरकार आई है इसलिए हालात बेहतर हो सकते हैं.

उन्होंने कहा, "आप गुनहगारों को बिल्कुल सज़ा दीजिए. लेकिन आज़मगढ़ के इतने सारे लड़के जो जेलों में बंद हैं और उन पर लगे आरोपों की पूरी तरह जांच भी नहीं हो सकी है, उनके घर वालों का क्या होगा. मैं तो छूट गया लेकिन अगर फंसा दिया गया होता तो मेरे परिवार का क्या होता."

अपने साथ हुई घटना के 13 साल बीत जाने पर फ़हीम की ज़िन्दगी बिल्कुल बदल चुकी है.

कुछ वर्षों तक दुबई में रहने के बाद वे भारत वापस लौट आए और इन दिनों उसी टेड़िया मस्जिद के पास एक दुकान चलाकर परिवार का पेट पाल रहे हैं जहां से उन्हें 13 वर्ष पहले उठाया गया था.

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