गंगा जी के किनारे, उस निर्जन स्थान पर जहां लोग मुर्दे जलाते हैं, अपने विचारों में तल्लीन कवि तुलसीदास घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि एक स्त्री अपने मृतक पति की लाश के पैरों के पास बैठी हुई है और ऐसा सुंदर श्रंगार किए है जैसे मानो उसका विवाह होने वाला हो। तुलसीदास को देखते ही वह स्त्री उठी और उन्हें प्रणाम करके बोली, महात्मा मुझे आशा दो और आशीर्वाद दो कि मैं अपने पति के पास स्वर्ग लोक में जाऊं।

तुलसीदास ने पूछा, मेरी बेटी! इतनी जल्दी की क्या आवश्यकता है। यह पृथ्वी भी तो उसी की है जिसने स्वर्ग लोक बनाया है। स्त्री ने कहा, स्वर्ग लोक के लिए मैं लालायित नहीं हूं। मैं अपने स्वामी के पास जाना चाहती हूं। तुलसीदास मुस्कुराए और बोले कि, मेरी बच्ची अपने घर जाओ! यह महीना बीतने भी नहीं पाएगा कि वहीं तुम अपने स्वामी को पा जाओगी।

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आनन्दमयी आशा के साथ वह स्त्री वापस चली गई। उसके बाद से तुलसीदास प्रतिदिन उसके घर गए। अपने ऊंचे-ऊंचे विचार उसके सामने उपस्थित किए और उनपर उसको सोचने के लिए कहा। यहां तक कि उस स्त्री का हृदय ईश्वरीय प्रेम से लबालब भर गया। एक महीना मुश्किल से बीता होगा कि उसके पड़ोसी उसके पास आए और पूछने लगे कि, नारी तुमने अपने स्वामी को पाया। विधवा मुस्कराई और बोली कि, हां, मैंने अपने पति को पा लिया। उत्सुक्ता से सबने पूछा कि, वह कहां है। स्त्री ने कहा कि, मेरे साथ एक होकर मेरे स्वामी मेरे हृदय में निवास कर रहे हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर

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