-विवादों की बाढ़ में दम तोड़ रही भर्तियां

-25 साल से एक ही ढर्रे पर चल रहा उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग

-आपसी उठापटक, दांवपेंच के चलते कानून के फंदे में फंसे

-एकलौते सदस्य के भरोसे बचा आयोग

vikash.gupta@inext.co.in

ALLAHABAD: उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, इलाहाबाद के दिन बहुरने का नाम नहीं ले रहे। यहां रोजगार के नाम पर बेरोजगारों को छला जा रहा है। आयोग मनमाने ढंग से विज्ञापन निकालने और नियुक्तियों के लिए विख्यात हो चुका है। इसका सबसे बड़ा एग्जाम्पल इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्ती के बाद डॉ। रामवीर सिंह यादव का कार्यवाहक के पद से हटना है। इस बीच हाईकोर्ट ने ही सदस्य के रूप में कार्यरत डॉ। रामवीर सिंह यादव, डॉ। अनिल सिंह और डॉ। रुदल यादव की नियुक्ति को अवैध करार दिया था। वहीं अब 20 जुलाई 2015 को आयोग में कुर्सी संभालने वाले लाल बिहारी पांडेय भी नप गए हैं।

दो विज्ञापन हो चुके हैं रद्द

वहीं अब जब उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग एक सदस्य डॉ। रामबाबू चतुर्वेदी के भरोसे रह गया है। तब बड़ा सवाल है कि करेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए विज्ञापित 1652 पदों की भर्ती पूरी भी हो पाएगी या नहीं। इसकी लिखित परीक्षा करवाई जा चुकी है। लेकिन परिणाम घोषित नहीं हो सका है। सवाल खड़े हो रहे हैं, जब आयोग में अध्यक्ष और सदस्य ही अयोग्य थे तो नियुक्ति प्रक्रिया को कैसे वैध ठहराया जा सकता है। इससे पहले आयोग विज्ञापन संख्या 44 एवं 45 की भर्ती को रद्द कर चुका है। साफ है कि आयोग में आपसी उठापटक, दांवपेंच और राजनैतिक दखल के चलते भर्तियां कानून के फंदे में फंसकर दम तोड़ रही हैं।

2008 से नियुक्तियों का टोटा

बता दें कि विज्ञापन संख्या 44 का विज्ञापन जुलाई 2008 में आया था। इसमें प्रवक्ता के 505 पद विज्ञापित किए गए थे। जिसमें सामान्य के 252, ओबीसी के 136, अनुसूचित जाति के 107 एवं अनुसूचित जनजाति के 10 पद शामिल थे। इसके लिए लगभग 46,000 आवेदन हुए थे। वहीं विज्ञापन संख्या 45 का विज्ञापन दिसम्बर 2010 में आया था। इसमें प्रवक्ता के 546 पद शामिल थे। जिसमें सामान्य के 273, ओबीसी के 148, अनुसूचित जाति के 114 एवं अनुसूचित जनजाति के 11 पद शामिल थे। इसके लिए लगभग तीस हजार आवेदन हुए थे।

1980 में स्थापित हुआ था

आयोग के इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि एक अक्टूबर 1980 में स्थापित उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में वर्ष 1983 से 1993 के बीच प्रवक्ता पदों के दस विज्ञापन हुए। जिसमें 2365 पद विज्ञापित हुए। इनमें 1052 प्रवक्ताओं का चयन हो सका। वर्ष 1994 से 2002 तक नौ विज्ञापन हुए। इसमें 4672 पद विज्ञापित हुए। जिसमें 3466 प्रवक्ताओं का चयन हो सका। इसके बाद वर्ष 2003 और 2005 में आए बैकलाग के 838 और 281 प्रवक्ता पदों पर चयन का विवाद हाईकोर्ट की चौखट तक पहुंचा था। विज्ञापन संख्या 41 में विज्ञापित 38 विषयों के 552 प्रवक्ता पद एवं 42 में बैकलाग के 337 पद भी विवादों से अछूते नहीं रहे। करेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर के 1652 पद विज्ञापन संख्या 46 के तहत विज्ञापित किए गए थे।

प्रिंसिपल तक का चयन मुश्किल

वहीं बात प्राचार्यो के चयन की करें तो अब तक आयोग द्वारा प्राचार्य के 19 विज्ञापन किए गए हैं। जिसमें से विज्ञापन संख्या 33, 34, 35 एवं 36 को माननीय न्यायालय ने आरक्षण को गलत ढंग से परिभाषित किए जाने के कारण निरस्त कर दिया था। विज्ञापन संख्या 43 को भी निरस्त किया जा चुका है। इसमें प्राचार्य के 32 पद शामिल थे। पूर्व सदस्य डॉ। सैय्यद जमाल हैदर जैदी ने तत्कालीन अध्यक्ष डॉ। जे प्रसाद द्वारा प्रशासनिक पदों पर नियंत्रण किए जाने के लिए इसे निरस्त किए जाने की संस्तुति शासन से की थी।

योग्यता हो गई दरकिनार

उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में शायद ही कोई ऐसी भर्ती हो जो आरोप प्रत्यारोपों से अछूती रही हो। इसके पीछे बड़ा कारण बीतते वक्त के साथ आयोग में सत्ताधारियों की दखल का बढ़ते जाना है। जिसमें योग्यता को दरकिनार करके अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्तियां सत्ता की पसंद-नापसंद के आधार पर की गई। हाल यह रहा कि पैसों का लेनदेन, चहेतों का चयन और नियमों की मनमानी व्याख्या आम बात होती चली गई। कालांतर में कई सदस्य ऐसे रहे जो थे तो रीडर ग्रेड के, लेकिन वे भविष्य में प्रिंसिपल पद का इंटरव्यू लेने में सफल रहे।

मानक ही बन गया मौका

आयोग के लिए इससे भी बुरा दौर तब शुरू हुआ जब वर्ष 2004 में सदस्यों की नियुक्ति संबंधि मानकों में सातवां मानक जोड़ दिया गया कि राज्य सरकार की राय में वह व्यक्ति भी सदस्य बनाया जा सकता है, जिसका शिक्षा के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान हो। इससे हुआ यह कि हिस्ट्रीशीटर और सजायाफ्ता तक आयोग में सदस्य बना दिए गए। इसका एक बड़ा एग्जाम्पल हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट में दाखिल जनहित याचिका भी है। जिसमें वर्तमान कार्यवाहक अध्यक्ष डॉ। रामवीर सिंह यादव के बारे में कहा गया है कि वे खुद प्रिंसिपल के इंटरव्यू में चयनित नहीं हो सके थे तो उन्हें आयोग का सदस्य कैसे बना दिया गया। कोर्ट ने प्रमुख सचिव से इसकी जांच करवाकर हलफनामा दाखिल करने को कहा था।

इसलिए आई ये नौबत

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-प्रेसिडेंट और मेम्बर्स के बीच कम्युनिकेशन गैप

-एक दूसरे के राइट्स पर अतिक्रमण की कोशिश

-ज्यादातर एप्वाइंटमेंट में धांधली के आरोप

-नियुक्तियों को कोर्ट में चुनौती और पेंडिंग केसेज का साल्व न होना

-कमीशन में राजनैतिक दखल

-इम्प्लाइज और रिसोर्सेज की कमी

-कमीशन में स्पेस का भारी अभाव

-शासन और कमीशन में आपसी समन्वय का न होना आदि