- पुलिस लाइन से लेकर दफ्तर कर रहे इस्तेमाल

- टेराकोटा की मूर्तियां, कलाकृतियों को बढ़ावा

GORAKHPUR: शहर में बनने वाले टेराकोटा की कलाकृतियों को गोरखपुर पुलिस बढ़ावा देने में जुटी है। टेराकोटा की बनी चीजें पुलिस लाइन के सभागार से लेकर दफ्तरों तक में माटी की खुशबू बिखेर रही हैं। पुलिस की तरफ से स्पेशल ऑर्डर देकर टेराकोटा की सामग्री तैयार कराई गई है। एसएसपी ऑफिस में टेबल पर रखे गए नेम प्लेट को टेराकोटा से बनवाया गया है। एसएसपी ने कहा कि हमारे इस प्रयास से मिट्टी से बनी कलाकृतियों को बढ़ावा मिल रहा है। इससे कलाकारों को काफी प्रोत्साहन मिलेगा।

ऑफिस से लेकर आवास तक आती नजर

शहर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुलरिहा, औरंगाबाद में टेराकोटा की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। टेराकोटा से जुड़े लोगों का बिजनेस बढ़ाने में गवर्नमेंट मदद कर रही है। गोरखपुर में बनी सामग्री एक्सपोर्ट होकर फॉरेन के कई देशों में भेजी जा रही है। टेराकोटा से जुड़े हुए लोगों के रोजगार को बढ़ावा देने के लिए गोरखपुर पुलिस ने भी एक कदम बढ़ाया। टेराकोटा के बारे में जानकारी होने पर एसएसपी ने स्पेशल ऑर्डर देकर कई चीजें मंगाई। एसएसपी दफ्तर में टेबल पर रखी जाने वाली नेम प्लेट से लेकर आवास के बाहर रखे हैंडीक्राफ्ट को देखकर बरबस ही सबका ध्यान चला जाता है। मिट्टी से बनी सजावट की वस्तुएं लोगों का मन मोह लेती हैं।

पंडित नेहरू को खींच ले गई मिट्टी की खुशबू

औरंगाबाद से जुड़े शिल्पकारों का कहना है कि वर्ष 1966 में पंडित जवाहरलाल नेहरू भी टेराकोटा की मूर्तियों को देखने के लिए पहुंचे थे। रिक्शे से चलकर वह औरंगाबाद गए। वहां टेराकोटा का काम शुरू करने वाले सुखराज से मिलकर इसकी तारीफ करते हुए बढ़ावा देने को कहा। वर्ष 1981 में इसी गांव के शिवानंद को स्टेट अवॉर्ड मिला था। वह वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट के तहत परंपरागत टेराकोटा को चुना गया था। इसलिए जियोग्राफिकल इंडीकेशन भी तैयार कराने को कहा गया था। इससे व‌र्ल्ड मार्केट में टेराकोटा को जगह दिलाने में आसानी होगी।

इन जगहों पर होता टेराकोटा का काम

औरंगाबाद का नाम प्रमुख रूप से शामिल है

गुलरिहा, जंगल एकला और पादरी बाजार में भी काम होता है।

दोमट मिट्टी से बनी कलाकृतियां पकने के बाद खुद ही लाल हो जाती हैं।

कोई आकृति बनाने में सांचे का इस्तेमाल नहीं किया जाता। इनको हाथ से तैयार करते हैं।

यह पूरी तरह से इकोफ्रेंडली होती हैं। पकने के बाद कलर से डिजाइन करके खूबसूरती बढ़ाते हैं।

मूर्तियों को बनाने के लिए भरवलिया, बूढ़ाडीह सहित अन्य गांवों के पोखरों से मिट्टी निकाली जाती है।

मई, जून में मिट्टी में दरार पड़ने पर काबिस मिट्टी निकालकर साल भर के काम के लिए रखी जाती है।

काबिस मिट्टी को तैयार करने के लिए खट्टे आम के पेड़ की छाल, कास्टिक सोडा का घोल बनाया जाता है।