अकबरी सेना के सिपेसालार थे

सौदागर मोहल्ले के हुसैन बख्श के पूर्वज अकबर की सेना में ऊंचे पद पर थे। हुसैन बख्स के बेटे सरफराज अली अपने देश से बहुत प्यार करते थे। सरफराज की वंशज दरख्शां ताजवर ने बताया कि जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की अलख जली तो सरफराज भी इससे दूर नहीं रह सके। उन्होंने गोरखपुर में इस लौ को चिंगारी देना शुरू किया। उनका रास्ता यहींनहींथमा और वे वे देश की आजादी के लिए शाहजहांपुर में लोगों को इक्ट्ठा करने के बाद बरेली जा पहुंचे। जहां सरफराज बख्त खां के संपर्क में आए और अपने साथियों के साथ दिल्ली पहुंचकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। दिल्ली में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति को तीव्रता प्रदान करने के लिए बख्त खां ने एक फतवा भी जारी किया था, जिसमें सरफराज अली के भी हस्ताक्षर थे। मगर इस लड़ाई में मुगल शासक बहादुर शाह जफर के साथ न देने से दिल्ली में हार का सामना करना पड़ा। मगर सरफराज ने हार नहीं मानी और वहां से वे अंग्रेजों को चकमा देकर लखनऊ आ गए। जहां उन्होंने बेगम हजरत महल के साथ लड़ाई में भाग लिया। मगर अपने कुछ लोगों के गद्दारी करने से अंग्रेजों को लगातार जीत मिल रही थी। अंग्रेज सरफराज को पकड़ कर मौत की सजा देना चाहते थे। मगर गोरखपुर का यह क्रांति हर वक्त अंग्रेजों को चकमा देता रहा। अंत में जब लगभग पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत हो गई तो भी सरफराज ने हार नहीं मानी और नेपाल में शरण लेकर वहीं से रणनीति बनाने लगे। आखिर सरफराज की मौत भी नेपाल में हुई और उन्हें काठमांडू की जामा मस्जिद के ही एक हिस्से में दफन कर दिया गया। मतलब इस आजादी की लड़ाई में अगर देश को कामयाबी नहीं मिली तो सरफराज को अपने वतन की मिïट्टी में दो गज जमीं भी नसीब न हुई।

सरफराज की सजा मिली परिवार के साथ पड़ोसियों को

सरफराज की वंशज दरख्शाँ ताजवर ने बताया कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस बगावत की सजा उन्हें अगर देश निकाला से मिली तो उनकी फैमिली और पड़ोसी भी बच न सकें। सरफराज को पकडऩे में नाकाम अंग्रेजों ने शक की बुनियाद पर मोहल्ले के अधिकांश लोगों को फांसी की सजा सुना दी। उन्हें सरफराज के घर से कुछ दूरी पर स्थित जेल के एक पेड़ से लटका कर फांसी दे दी। वहीं उनके खानदानी कब्रिस्तान में दो ऐसी कब्र है, जो इस सितम की गवाह है। जिसे लोग 'गन्जे शहीदां' कहते है। यहां देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दफन किया गया था। दरख्शाँ ने बताया कि सरफराज की अपनी फैमिली के लोग नेपाल के निकट पोखरभिटवा में जाकर बस गए।

दो गज में दफना दिया दर्जनों को

'दो गज जमीं काफी है दो गज कफन के बाद'। सरफराज से डरे अंग्रेजों ने इसे को भी झुठला दिया। सरफराज को पकडऩे में नाकाम रही अंग्रेजी हुकूमत ने गोरखपुर शहर में जमकर कहर ढाया। सौदागर मोहल्ले में रहने वाले हर उस शख्स को अंग्रेजी हुकूमत ने मौत की सजा सुना दी, जो सरफराज से जुड़ा था। एक साथ की गई हत्या के बाद जब अंग्रेजों को दफनाने के लिए जमीं न मिली तो उन्होंने सारी हदें पार कर दी। एक कब्र के लिए खोदी गई दो गज जमीं पर दर्जनों को दफना दिया। इस दोनों कब्र को 'गन्जे शहीदां' कहा जाता है। यह कब्र अब भी उन क्रांतिकारियों की गवाह है। हालांकि एक साथ कई लाशें दफनाएं जाने से लोग बच्चों को उसके आसपास भेजने से डरते है।

1857 की क्रांति का गवाह है

1857 की क्रांति की अलख मंगल पांडेय ने मेरठ से जगाई थी। यह बात शायद सभी हिंदुस्तानियों को मालूम होगी। मगर एक शख्स ऐसा भी था, जो इस क्रांति की लौ को गोरखपुर से लेकर दिल्ली तक जलाया था। सिटी के सौदागर मोहल्ले में रहने वाले सरफराज अली ने 1857 में क्रांति की लड़ाई दिल्ली में बहादुर शाह जफर के साथ तक लड़ी। सरफराज से अंग्रेज इस कदर परेशान थे कि वह हर हालत में उसे मौत की सजा देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने हर हथकंडे अपना लिए। मगर सरफराज अंग्रेजी हुकूमत के हाथ नहीं लगा। अंग्रेजों ने सौदागर मोहल्ले में जमकर कहर ढाया। सरफराज के जानने वालों से लेकर उनका नाम लेने वाले को भी फांसी पर चढ़ा दिया। सरफराज के घर से चंद कदम दूर एक राजा का किला है। जिसे अंग्रेजों ने अपनी जेल बना रखा था। अंग्रेजों को जब फांसी देने के लिए फांसी घर नहीं मिला तो उन्होंने जेल में लगे एक बड़े पाकड़ के पेड़ से सैकड़ों लोगों को फांसी पर लटका दिया। इस पेड़ पर करीब तीन सौ से अधिक लोगों को फांसी दी गई थी। इस क्रांति का गवाह यह पेड़ आज भी अपनी बाहें फैलाए खड़ा है।

समय के साथ बदल रहा स्वरूप

बाईपास से सटे, सौदागर मोहल्ले के पीछे, लालडिग्गी सबस्टेशन के सामने एक बड़ी सी चाहरदीवारी जिसकी असलियत अधिकांश गोरखपुराइट्स को भी नहीं मालूम है। अब इस चाहरदीवारी के अंदर डोम बस्ती बस गई है। हकीकत में यह चाहरदीवारी एक किले की है। यह किला राजा बसंत सिंह का था। जब अंग्रेजी हुकूमत का राज्य हुआ तो यह किला वीरान हो गया। अंग्रेजों ने इस किले को अपनी जेल में तब्दील कर दिया। यहां क्रांतिकारियों को सलाखों के पीछे रखने के साथ कड़ी सजाएं दी जाती थी। इसके बाद कुछ सालों तक यह अंग्रेजों का हेडक्वार्टर भी रहा। फिर देश आजाद हुआ तो यह न किला रह गया और न जेल। जेल की बैरक खाली हो गई और हवालात भी। अब इन बैरकों में न तो क्रांतिकारी रहते है और न ही अपराध करने वाले बंदी बल्कि यहां कई परिवारों का बसेरा है।