इनके समर्थन में भले ही भीड़ न जुटे या फिर मीडिया इन्हें नज़रअंदाज़ करे, लेकिन जंतर-मंतर पर पिछले सालों में न जाने कितने लोग इंसाफ़ पाने की उम्मीद में व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।

तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के मुद्दे जिनमें से कुछ हमें और आपको सुनने में थोड़े हास्यास्पद भी लगें। लेकिन ज़ाहिर है कि कुछ लोगों के लिए ये इतने गंभीर मुद्दे हैं कि वो बिना सर्दी-गर्मी, खाने-पीने और परिवार की चिंता किए इनके लिए धरना देते हैं।

तरह-तरह के मुद्दे

हम मिले डॉक्टर रमाइंद्र कुमार से भी जो जंतर-मंतर पर 1997 से अलग-अलग मुद्दों पर भूख हड़ताल कर रहे हैं जिनमें 'विश्व की सड़ी-गली व्यवस्था', 'पूंजीवादी व्यवस्था' और 'तिब्बत देश की आज़ादी के समर्थन' जैसे मुद्दे शामिल हैं।

ये पूछे जाने पर कि क्या उनकी भूख हड़तालों से उन समस्याओं का समाधान हो जाएगा, डॉक्टर कुमार ने कहा, "कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाती। विश्व की व्यवस्था गड़बड़ है, ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। इसलिए हमारे मन में आया कि ऐसी भूख हड़ताल करनी चाहिए जिससे विश्व में समाजवादी व्यवस्था आए."

जब पति ने छोटी बहन का अपहरण कर घर बसा लिया और एफआईआर दर्ज होने के बावजूद एक साल तक मामला नहीं सुलझा, तो उत्तर प्रदेश के ज़िला प्रतापगढ़ की कुसुमलता शर्मा दिल्ली आकर जंतर-मंतर पर धरने पर बैठ गईं।

बड़ा मुद्दा, छोटा मुद्दा?

ऐसा भी नहीं है कि इन लोगों की सुध कोई नहीं लेता। बनारस ज़िले के संतोष कुमार सिंह को उनके रिश्तेदारों ने पहले लापता और फिर मृत घोषित कर दिया। पिछले नौ सालों में पहले उन्होंने क़ानूनी लड़ाई लड़ी और अब छह महीने से वो अपने अस्तित्व की लड़ाई को जंतर-मंतर ले आए हैं। उनकी कहानी मीडिया में भी आई लेकिन मीडिया के रोल से वो संतुष्ट नहीं दिखे।

मीडिया से सवाल करते हुए संतोष ने कहा, "मीडिया के लोग आए भी और (मेरा मुद्दा) दिखाया भी लेकिन वो बस एक 'इश्यू' बन कर रह गया। अन्ना हज़ारे या अरविंद केजरीवाल या किरण बेदी का जो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ मुद्दा है, क्या बड़ा मुद्दा ही सब आपको दिखता है, ये मुद्दा नहीं दिखता है?"

तो क्या कारण है कि अन्ना हज़ारे के आंदोलन का हफ्तों तक मीडिया में कवरेज होता है लेकिन महीनों से धरने पर बैठे कुसुमलता, संतोष कुमार सिंह और हेमादर सेनापति जैसे लोगों के हिस्से में आते हैं स्थानीय टीवी पर चंद मिनट या अख़बार में कुछ सौ शब्द।

श्रीकाकुलम, आंध्र प्रदेश, की संस्था, दलितों पर अत्याचार विरोधी समन्वय समिति, के मृत्युंजय और उनके साथी जंतर-मंतर पर एक दिन के धरने पर बैठे। मृत्युंजय का कहना था, "मीडिया वैसी ही घटनाओं को कवरेज देता है जिसमें उसे मसाला मिलता है, जो बिक सके, जिसका टीआरपी ज़्यादा हो। और उन तमाम संवेदनशील मुद्दों को छिपाती है तो मीडिया से भी हमें शिक़ायत है। लेकिन कुछ प्रगतिशील मीडिया भी है जो आगे आकर इन तरह के मुद्दों की रिपोर्टिंग करता है."

धरने की इजाज़त सुबह दस से शाम पांच बजे तक दी जाती है और पुलिस द्वारा इन लोगों के लिए सिर्फ़ पीने के पानी का इंतज़ाम होता है। पूछताछ करने पर हमें पता चला कि धरने पर बैठे पास के मंदिर या गुरुद्वारे में जाकर लंगर में खाना खाते हैं और रात को, अपनी ज़िम्मेदारी पर, वहीं, आसमान के नीचे, सड़क पर सो जाते हैं।

बेनाम रिश्ते

इन लोगों के बीच हमारी मुलाक़ात हुई कुछ समय पहले रिटायर हुए दिल्ली के सूरज प्रकाश से जो जंतर-मंतर पर किसी धरने-प्रदर्शन की वजह से नहीं थे। उन्होंने बताया कि वो वहां दो प्रदर्शनकारी, संतोष कुमार सिंह और हेमादर सेनापति की मदद के लिए आते हैं।

सूरज प्रकाश ने कहा, "ऐसे ही यहां आने-जाने पर पता चला कि इन दोनों का यहां कोई नहीं है और ये गुरुद्वारे में जाकर खाना खाते हैं। तो मैंने इनके लिए घर से खाना लाने का फ़ैसला किया। मैं रोज़ तो नहीं आता लेकिन जब भी मैं आता हूं, तो खाना ले आता हूं। मुझे इनके मुद्दे से मतलब नहीं है, बस इनकी मदद करना चाहता हूं." धरने पर बैठे कुछ लोगों ने अपने घरों से दूर जंतर मंतर को ही अपना घर बना लिया है। और साथ ही कायम कर लिए हैं नए रिश्ते।

असम के हेमादर सेनापति यहां पिछले 10 महीने से अपनी बुआ के लिए न्याय पाने और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ धरने पर बैठे हैं। उन्होंने बताया, "एक-दूसरे के साथ बातचीत करके हम अपना ग़म भूल जाते हैं। यहां आपस में हंसी-मज़ाक करते हैं तो घर की याद भी नहीं आती और हम भूल जाते हैं कि हम धरने पर हैं। टेंशन-फ्री रहते हैं हम."

प्रशासन से निराशा, उपेक्षा और कठिनाइयों के बावजूद ये बेनाम रिश्ते और अपनापन ही शायद इन हाशिये के आंदोलनकारियों को हिम्मत और विश्वास दिलाते हैं कि एक-न-एक दिन उन्हें इंसाफ़ मिलेगा।

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