किसी भी युद्ध में वायु सेना की काफ़ी अहम भूमिका होती है, लेकिन उनके युद्धबंदी बनने का भी ख़तरा सबसे ज़्यादा होता है क्योंकि वायु सेना के पायलट दुश्मन की ज़मीन पर जाकर बमबारी करते हैं।

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान वायु सेना के कई पायलट बंदी बनाए गए थे। लेकिन सबमें ये दम नहीं था कि वे पाकिस्तान की जेल को तोड़कर भागने की कोशिश करें।

लेकिन दिलीप परुलकर इनमें अलग थे। जेल से भागने की महत्वाकांक्षा उनमें वर्षों से थी। और जब उन्हें ऐसा करने का मौक़ा मिला, तो वे न सिर्फ़ जेल को तोड़कर दो अन्य साथियों के साथ भागने में सफल रहे, बल्कि बिना किसी परेशानी के अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक पहुँच गए।

लेकिन इस कहानी में मोड़ उस समय आया, जब ये तीनों अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में घुसने से पहले ही पकड़ लिए गए। रावलपिंडी जेल से भागने की उनकी कहानी काफ़ी रोमांचक तो है, लेकिन ख़तरनाक भी है।

भागने के बाद जेल में पीछे छूट गए उनके साथियों को समस्याएँ भी झेलनी पड़ी। लेकिन आज भी इस घटना के चालीस साल बाद भी दिलीप परुलकर उतने ही जोश से कहानी बयां करते हैं।

फ़र्ज़

बीबीसी के साथ बातचीत में परुलकर ने बताया, "किसी भी युद्धबंदी का फ़र्ज होता है कि वो जेल से भागने की कोशिश करे। मेरी तो ये बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा थी कि अगर मैं युद्धबंदी बना, तो मैं वहाँ से भागने की कोशिश ज़रूर करूँगा और मैंने ऐसा ही किया."

फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप परुलकर, फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट हरीश सिंह जी, कमांडर गरेवाल और फ़्लाइंग ऑफ़िसर चटी शुरुआती योजना का हिस्सा थे। लेकिन इनमें उन्हें अपने साथियों का भी सहयोग मिला।

अपनी योजना को अंजाम देने के लिए इन चारों ने उस कमरे को चुना, जिसमें सुरंग लगाई जा सकती थी। उनकी योजना के बारे में उनके बाक़ी के साथियों को भी पता था। फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट दिलीप परुलकर के नेतृत्व में उस सेल में सुरंग खोदने का काम शुरू हुआ।

विंग कमांडर गरेवाल बताते हैं, "हमें थोड़ी बहुत छुट्टी मिलती थी खेलने के लिए। वहाँ से हमे कभी-कभी बाहर का रास्ता दिखता था। साथ ही बाथरूम की खिड़की से भी हम झाँक कर ये देख लेते थे कि बाहर उतनी सुरक्षा नहीं हैं। हमें ये लग रहा था कि अगर हम कमरे की दीवार तोड़कर बाहर निकल जाएँ, तो हम सड़क तक आसानी तक पहुँच सकते हैं."

इतना ही नहीं ये लोग ख़ुफ़िया जानकारी के लिए गार्ड्स से ख़ूब बातचीत करते थे। दरअसल भारत और पाकिस्तान में उस समय युद्धविराम हो गया था, इसलिए गार्ड्स से बात करना इनके लिए और आसान हो गया था।

निगरानी

गरेवाल, परुलकर, हरीश सिंहजी और चेटी रात में कमरे की बल्ब फ़्यूज करके फिर चारपाई के नीचे लेटकर दीवार तोड़ने की कोशिश करते थे। इन्हीं में से एक व्यक्ति गार्ड्स की गतिविधियों पर निगरानी रखता था।

लेकिन इन लोगों का अंदाज़ा ग़लत निकला, क्योंकि बाहर का प्लास्टर काफ़ी मज़बूत था। इस प्लास्टर को तोड़ने में इन लोगों को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी।

आख़िरकार इन्हें प्लास्टर तोड़ने में सफलता मिली और उन्होंने जेल से भागने की जो तारीख़ चुनी वो थी 13 अगस्त यानी पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस से एक दिन पहले।

गरेवाल बताते हैं कि उस दिन सुरक्षा कम कड़ी थी। कैंप कमांडर वहीदुद्दीन मरी गए थे। जब उन्होंने प्लास्टर पर आख़िरी ज़ोर मारा, तो प्लास्टर टूटा। भाग्य भी इन लोगों के साथ था, क्योंकि उसी दौरान बारिश शुरू हो गई, इसलिए प्लास्टर टूटने की आवाज़ दब गई। साथ की बाहर निगरानी करने वाले गार्ड्स बरामदे में चले गए थे।

गरेवाल बताते हैं, "हमारे पास राशन थे, पानी था। हमें 80 रुपए वेतन मिलता था। इसमें से कुछ पैसे भी हमारे पास थे। हम दीवार फांदकर सड़क पर पहुँचे। उसी समय पास के सिनेमाघर का मिडनाइट शो ख़त्म हुआ था। एकाएक वहाँ काफ़ी भीड़ हो गई थी। हम तीनों भी इस भीड़ के साथ हो लिए और पेशावर की बस पर बैठ गए."

तीनों लंडी कोटल तक पहुँच गए। यहाँ तक सब कुछ योजना के मुताबिक़ या यों कहें कि उससे बेहतर ही हुआ। लेकिन यहाँ आकर बात बिगड़ गई।

परुलकर बताते हैं, "हम कुछ अजीब लग रहे थे। पहले तो हमें बांग्लादेशी समझकर रोका गया। लेकिन हमलोगों ने अपने को पाकिस्तानी एयरफ़ोर्स का जवान बताया। ये भी बताया कि हम ईसाई हैं। वो व्यक्ति तहसीलदार के ऑफ़िस में काम करता था। फिर हमलोगों को तहसीलदार के कार्यालय में ले जाया गया."

जानकारी

उन लोगों पर अपना दबदबा क़ायम करने के लिए दिलीप परुलकर ने उन्हें चीफ़ ऑफ़ एयर स्टॉफ़ के एडीसी उस्मान से बात करने को कहा। दरअसल एडीसी पहले रावलपिंडी जेल के कैंप कमांडर थे और इन लोगों को जानते थे।

एडीसी उस्मान ने तहसीलदार से कहा कि इन लोगों को कोई हानि नहीं पहुँचनी चाहिए, लेकिन इनको छोड़ना मत। एडीसी उस्मान ने वहाँ के पॉलिटिकल एजेंट को फ़ोन करके ये सारी जानकारी दी। आख़िरकार उन्हें पॉलिटिकल एजेंट के सामने पेश किया गया, जो कलेक्टर जैसा अधिकारी होता था।

विंग कमांडर गरेवाल बताते हैं कि उनका नाम मेजर बरकी था। मेजर बरकी ने इन तीनों भारतीय युद्धबंदियों को जो बताया, उससे अंदाज़ा लगता है कि ये तीनों पाकिस्तान से भागने से कितने नज़दीक थे।

गरेवाल ने बताया, "मेजर बरकी ने हमसे कहा कि हम दुनिया के सबसे दुर्भाग्यशाली लोगों में से हैं, जिनसे वे मिले हैं। अपनी खिड़की से एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान में है." उनका इशारा इस ओर था कि आप पाकिस्तान से भागने के कितने नज़दीक थे।

दूसरी ओर अभी तक रावलपिंडी में किसी को ये पता नहीं चल पाया था कि तीन युद्धबंदी भाग चुके हैं। उनके नंदी कोटल में पकड़े जाने के बाद रावलपिंडी जेल में हलचल शुरू हुई। उस युद्धबंदी शिविर में मौजूद एयर कोमोडोर जेएल भार्गव ने बीबीसी से बातचीत में उन दिनों को याद किया।

उन्होंने बताया, "अगर ये तीनों नहीं पकड़े जाते तो एक हिस्ट्री बन जाती। हमें लॉयलपुर शिफ़्ट कर दिया गया। हमारे साथ चार-पाँच दिन रावलपिंडी में बहुत बुरा व्यवहार किया। लेकिन लॉयलपुर में स्थिति अलग थी। वहाँ कई भारतीय युद्धबंदी पहले से ही बंद थे। यहीं हमारी इन तीनों से फिर मुलाक़ात हुई." बाद में भारी-भरकम सुरक्षा के बीच इन तीनों को पेशावर ले जाया गया।

लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती है। पेशावर में भी दिलीप परुलकर ने कमरे से भागने की कोशिश करनी शुरू की थी। लेकिन इनकी कोशिश शुरू में ही पकड़ी गई।

इन दोनों को सज़ा के तौर पर हाथों और पैरों में हथकड़ियाँ लगा दी। इसके विरोध में पारुलकर ने भूख हड़ताल की घोषणा कर दी। अगले दिन बेस कमांडर समेत कई अधिकारी आए। उन्होंने इन लोगों को अच्छा व्यवहार करने की सलाह दी।

सज़ा

बाद में हथकड़ियाँ खोल दी गईं। तीन-चार दिन बाद इन्हें रावलपिंडी ले जाया गया, जहाँ पूरे मामले की जाँच होनी थी। जाँच के बाद इन तीनों को एक महीने तक अलग-अलग कमरों में रखने की सज़ा सुनाई गई।

फिर इन्हें लॉयलपुर ले जाया गया। जहाँ पहले से ही बड़ी संख्या में भारतीय युद्धबंदी मौजूद थे। तब तक इनके पुराने साथी भी लॉयलपुर जेल में पहुँच चुके थे। इनके क़िस्से बाक़ी भारतीय युद्धबंदियों में फैल चुके थे।

इन युद्धबंदियों ने लॉयलपुर में जन्माष्टमी मनाने की योजना बनाई। जब कई वरिष्ठ अधिकारी इस कार्यक्रम को देखने पहुँचे, तो इन लोगों ने परुलकर, सतीश सिंहजी और गरेवाल को वहाँ से निकालने की मांग रख दी।

उन्होंने कहा कि अगर उनके तीन साथियों को वहाँ से नहीं छोड़ा जाएगा, तो वे कार्यक्रम नहीं करेंगे। अभी इन तीनों की सज़ा के छह दिन बाक़ी थे। लेकिन इतने वरिष्ठ अधिकारियों की मौजूदगी में कहीं मामला गड़बड़ न हो जाए, इससे उन्होंने इन तीनों को छोड़ा गया।

फिर दिसंबर 1972 में युद्धबंदियों की अदला-बदली के तहत ये लोग भारत पहुँचे। इन तीनों युद्धबंदियों की भागने की कोशिश भले ही नाकाम रही, लेकिन उन्होंने एक युद्धबंदी के तौर पर अपना फ़र्ज निभाया। माना जाता है कि युद्धबंदी के दौरान जेल से भागने की कोशिश करना उनका फ़र्ज था और उन्होंने अपना फ़र्ज निभाया।

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