लखनऊ (ब्यूरो)। कानपुर के एक स्कूल में 10वीं के छात्र द्वारा अपने ही सहपाठी की चाकू से निर्मम हत्या की खबर ने सभी को हिलाकर रख दिया है। मामले में छात्र द्वारा क्राइम सीरीज देखने की बात भी सामने आ रही है। जिसने एकबार फिर बच्चों में ऐसे शोज के चलते उनकी मानसिक स्थिति पर हो रहे बुरे असर को लेकर बहस छेड़ दी है। चाइल्ड साइकियाट्रिस्ट की माने तो बच्चों में 'रेड फ्लैग्स ऑफ एडोलसेंस क्राइसिस' को पहचानना बेहद जरूरी है, क्योंकि कोई भी घटना करने से पहले वो कई तरह के संकेत देते हैं। ऐसे में पैरेंट्स और टीचर्स को ज्यादा अलर्ट रहने की जरूरत है, ताकि ऐसेहादसों को समय रहते रोका जा सके।

कंटेंट आसानी से उपलब्ध

केजीएमयू के चाइल्ड साइकियाट्रिस्ट डॉ। अमित आर्य ने बताया कि क्राइम या एक्शन रिलेटेड जो शो होते हैं, वे आज के दौर में ओटीटी के माध्यम से हर किसी के पास आसानी से उपलब्ध हैं। इनमें अडल्ट कंटेंट काफी होता है। चूंकि एडोलसेंस एज में शरीर में कई बदलाव हो रहे होते हैं। ऐसे में इस तरह के शोज देख कर मानसिकता वैसी हो जाती है कि 'मैं भी ऐसा करना चाहता हंू या इसके ख्वाब देखता हूं'। बच्चों में साइकोलॉजिकल मैच्योरिटी ज्यादा नहीं होती है, इसलिए वे देखी गई चीजों को करने की कोशिश करते हैं।

रेड फ्लैग्स पहचानना बेहद जरूरी

डॉ। अमित आगे बताते हैं कि एडोसलेंस क्राइसिस स्टेज बेहद खतरनाक होती है। ऐसे में पैरेंट्स को अपने बच्चों को बहुत संभालना चाहिए वरना बात बिगड़ सकती है। ऐसे में पैरेंट्स और टीचर्स दोनों को रेड फ्लेग्स ऑफ एडोलसेंस क्राइसिस को पहचानना बेहद जरूरी है। अगर आपको लगे कि बच्चों पर कोई दवाब है, चिड़चिड़ापन है, वह उग्र हो रहा है, पसंद-नापसंद में बदलाव हो रहा है, कम मार्क्स आ रहे हैं, जिद करता है, बात नहीं करता, झगड़ता है, टीवी व मोबाइल ज्यादा देखता है, गिने चुने लोगों से मिलता है, एक्सपेरिमेंट खासतौर पर नशा को लेकर आदि बदलावों को पहचानना बेहद जरूरी है। पैरेंट्स को इन रेड फ्लैग्स को जल्दी पहचानना चाहिए और समय रहते काउंसलिंग करें। जरूरत पड़ने पर डॉक्टर से काउंसलिंग करवाएं, ताकि समय रहते इन बदलावों को ठीक किया जा सके।

कोई भी कर सकता है काउंसलिंग

डॉ। अमित आर्य आगे बताते हैं कि विदेशों में इस तरह के मामले ज्यादा होते हैं, क्योंकि वहां पैरेंट्स बच्चों को ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं। वही हाल अब भारत में हो रहा है। मां-बाप दोनों वर्किंग हैं, जिसकी वजह से वे बच्चों को अपना समय नहीं दे पाते। ऐसे में रोज अपने बच्चों से पूछें कि लाइफ में क्या चल रहा है। क्योंकि कई बार बच्चों में व्यवहारिक परेशानियां होती हैं, जिसके चलते वे घटना के लिए पहले से ही प्लानिंग करते हैं। पहले से ही उनकी तरफ से कुछ संकेत मिलते हैं। पैरेंट्स और टीचर भी इन्हें पहचान नहीं पाते। ऐसे में समय पर काउंसलिंग कराना बेहद जरूरी है। काउंसलिंग पैरेंट्स, भाई-बहन या टीचर भी कर सकते हैं। पर इसके बाद भी सुधार न हो तो बिना देर किए साइकियाट्रिस्ट को दिखाना चाहिए।

स्क्रीन टाइम को लेकर कई स्टडीज

बच्चों पर सोशल मीडिया का इंपैक्ट सबसे ज्यादा है। इस उम्र में टीनएज लव व सेक्सुअल एक्टिविटीज बढ़ती जा रही हैं। बच्चे समय से पहले मैच्योर हो रहे हैं। भारत में हुई कई स्टडी कहती हैं कि बच्चों में स्क्रीन ऑवर बढ़ा है। यहां 12-15 साल के बच्चों में स्क्रीन टाइम 6-7 घंटा है, जो कि काफी हाई है। एक स्टडी के अनुसार, बच्चों का स्क्रीन टाइम जितना अधिक होगा, उनमें गुस्सा और आवेग आने के चांस उतने ज्यादा होंगे। वे वाइलेंट कंटेंट ज्यादा देखते तो उससे भी उग्र होने लगते हैं। उन्हें इमोशनल प्राब्लम, डिप्रेशन, एन्जायटी आदि होती है।

बच्चों में रेड फ्लैग्स को पहचानें

- बच्चों पर कोई दवाब है

- चिड़चिड़ापन

- उग्र होना

- पसंद-नापसंद में बदलाव

- कम मार्क्स आना

- जिद करना

- बात नहीं करना

- झगड़ा करना

- टीवी व मोबाइल ज्यादा देखना

- गिने चुने लोगों से मिलना

ऐसे लाएं बदलाव

- बच्चों से डेली लाइफ के बारे में बात करें

- स्क्रीन टाइम कम करें

- एग्रेसिव कंटेंट पर नजर रखें

- बच्चों को समय दें

- मेडिटेशन और एक्सरसाइज करवाएं

- कोई समस्या हो तो तुरंत काउंसलिंग करवाएं

ओटीटी की वजह से हर तरह का कंटेंट बच्चों को आसानी से मिल रहा है। लगातार ऐसा कंटेंट देखने के कारण बच्चे वैसा ही करने की सोचने लगते हैं। ऐसे में पैरेंट्स और टीचर्स को बच्चों में रेड फ्लैग्स को पहचानना बेहद जरूरी है।

-डॉ। अमित आर्य, चाइल्ड साइकोलाजिस्ट, केजीएमयू