पितरों के स्मरण और उन्हें अपनी श्रद्धा समर्पित करने के क्रम में अपने शहर को नमन करते हुए आज हम अंग्रेजों के इस पर काबिज होने की कहानी बताने की कोशिश कर रहे हैं। काशी में अगर अंग्रेजों को कुछ देशद्रोहियों का साथ न मिला होता तो इतिहास आज कुछ अलग ही होता। पर अफसोस कि ऐसा न हो सका। शहर की जबानी ही सुनिए यह कहानी

VARANASI

पूरे देश के साथ मैंने भी दासता की त्रासदी झेली है। महाराज बलवंत सिंह का निधन क्770 में हुआ। उनके बाद राजा चेतसिंह को मेरी जिम्मेदारी संभालने का मौका मिला। वे सन क्78क् तक बनारस के महाराज थे। क्म् अगस्त सन् क्78क् में काशी के शिवाला घाट पर अंगे्रजी सेना से राजा चेतसिंह के सिपाहियों का संघर्ष हुआ। यह विद्रोह राजभक्त नागरिकों द्वारा सारे नगर में फैल गया था। क्9 अगस्त को तत्कालीन वायसराय वारेन हेस्टिंग को औरतों के वेश में चुनार भागने को मजबूर होना पड़ा।

स्वामी बाग में जाकर छिपा था

वारेन हेस्टिंग्स पकड़े जाने के भय से कबीरचौरा स्थित वर्तमान में राधा स्वामी बाग में जा छिपा। पहले यह बाग माधो दास के बाग के नाम से फेमस था। यहां पर उसने अपने स्थानीय मददगार को बुलाया और चुनार जाने की इच्छा व्यक्त की। क्योंकि शहर की स्थिति उसके विपरीत थी। कभी भी उसके साथ कुछ भी हो सकता था दूसरे उसे भोजन की भी दिक्कत आ रही थी। यहां पर उसने बाबू औसान सिंह को अपना नायाब नियुक्त किया। लेकिन औसान सिंह जनता के विद्रोह को शांत करने में पूरी तरह असफल रहे। इस बीच हेस्टिंग्स को पता चला कि राजा चेतसिंह की सेना रामनगर से उसके बंगले की ओर तेजी से बढ़ रही है। बस उसने जनाना वेश धारण किया और रातों-रात पालकी पर सवार होकर चुनार के लिए निकल भागा। हेस्टिंग्स के भागने को लेकर एक कहावत बहुत प्रसिद्ध हुआ।

घोड़े पर हौदा, हौदे पर जीन

ऐसे भागा वारेन हेस्टिंग

कहने का आशय यह है कि उसे भागने की हड़बड़ाहट इतनी थी कि उसे यह भी होश नहीं रहा कि वह घोड़े पर हाथी का हौदा रख रहा है और उस पर जीन कस रहा है।

बदल जाता इतिहास

यह घटना भारतीय इतिहास की एक बहुत बड़ी घटना थी। अगर वारेन हेस्टिंग्स यहां से भागने में सफल नहीं होता तो अंग्रेज इतने सालों तक हम पर राज न कर पाते। वारेन हेस्टिंग्स यहां से जिंदा बच पाने में कामयाब हुआ और अंग्रेजी हुकूमत पूरी ताकत के साथ देश पर काबिज हुई। बनारस के ही एक प्रतिष्ठित परिवार ने वारेन हेस्टिंग्स को न केवल अपने यहां शरण दी बल्कि उसे भागने की व्यवस्था भी उपलब्ध करायी। इसके पुरस्कार स्वरूप अंगे्रजी सरकार ने उक्त परिवार को भारी धन और जमीन की सौगात दी। बाद में भी राजा चेतसिंह के साथ अंग्रेजी सेना का कई बार युद्ध हुआ। जिसमें रागनगर किले का युद्ध, लतीफपुर किले का युद्ध, विजयगढ़ का युद्ध प्रमुख है। कुछ जगहों पर चेतसिंह के भाग जाने की बात आती है। लेकिन उसकी प्रामाणिकता स्पष्ट नहीं हो सकी है।

ईस्ट इंडिया कंपनी का हुआ कब्जा

चार सितंबर क्78ख् में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुझ पर पूरी तरह कब्जा कर लिया। कंपनी की कुटिल रणनीति में मेरे कई खास फंसते रहे और अंग्रेज दिनों दिन मजबूत होते रहे। अंग्रेजों ने चेतसिंह और उनके भाई को विद्रोही करार दिया और उनके वंशजों को राज करने के अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेजों ने मेरी राजगद्दी पर बलवंत सिंह की कन्या पद्मा कुंवर जो बिहार में तिरहुत के दुर्विजय सिंह से ब्याही थीं, उनके बेटे महीप नारायण सिंह को काशी की गद्दी पर बैठाया।