देश के 10वें पीएम अटल बिहारी बाजपेई का आज बर्थडे है. तीन बार देश के पीएम बने अटल का नाम पालिटिक्स की दुनिया में हमेशा रेस्पेक्ट के साथ लिया जाता है. 87 साल के इस पालिटीशियन को पालिटिक्स के अलावा उनकी पोएट्री के लिये भी जाना जाता है.

अटल के birthday पर उनकी एक poem

1957 की दूसरी लोकसभा भारतीय जन संघ के जब केवल चार सांसद थे और प्रेसीडेंट राधाकृष्णन जन संघ पार्टी के बारे में जानते तक नहीं थे तब अटल उन चार सांसदों में ही थे. 1957 के बाद से अटल और उनकी पार्टी कुछ ऐसा कारनामा किया कि अटल देश के प्रधानमंत्री बने और जन संघ बाद में बीजेपी बन कर देश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई.

उनके राजनैतिक दुश्मन भी उनके भाषणों और खासकर उनकी मुस्कान के कायल थे. उनका सारी जिन्दगी शादी न करने का डिसीजन भी कई लोगों को बेहद पसंद आता है. कभी कभी अपने मजाक में भी वे इसका जिक्र कर दिया करते थे.

कवि अटल मूवी देखने के खासा शौकीन थे और कानपुर में डीएवी कालेज में पढ़ते वक्त अक्सर क्लास बंक कर मूवी देखने निकल जाया करते थे. अपने पिता की तरह ही अटल भी एक बेहतरीन कवि थे.

अटल के birthday पर उनकी एक poem

पेश है अटल के 88 वें बर्थडे पर उनकी लिखी एक कविता-

ऊँचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,

पौधे नहीं उगते,

न घास ही जमती है.

            जमती है सिर्फ बर्फ,

            जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,

            मौत की तरह ठंडी होती है.

            खेलती, खिलखिलाती नदी,

            जिसका रूप धारण कर,

            अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है.

ऐसी ऊँचाई,

जिसका परस

पानी को पत्थर कर दे,

ऐसी ऊँचाई

जिसका दरस हीन भाव भर दे,

अभिनंदन की अधिकारी है,

आरोहियों के लिये आमंत्रण है,

उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

            किन्तु कोई गौरैया,

            वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,

            ना कोई थका-मांदा बटोही,

            उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है.

सच्चाई यह है कि

केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,

सबसे अलग-थलग,

परिवेश से पृथक,

अपनों से कटा-बँटा,

शून्य में अकेला खड़ा होना,

पहाड़ की महानता नहीं,

मजबूरी है.

ऊँचाई और गहराई में

आकाश-पाताल की दूरी है.

            जो जितना ऊँचा,

            उतना एकाकी होता है,

            हर भार को स्वयं ढोता है,

            चेहरे पर मुस्कानें चिपका,

            मन ही मन रोता है.

ज़रूरी यह है कि

ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,

जिससे मनुष्य,

ठूँठ सा खड़ा न रहे,

औरों से घुले-मिले,

किसी को साथ ले,

किसी के संग चले.

            भीड़ में खो जाना,

            यादों में डूब जाना,

            स्वयं को भूल जाना,

            अस्तित्व को अर्थ,

            जीवन को सुगंध देता है.

धरती को बौनों की नहीं,

ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है.

इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,

नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

            किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,

            कि पाँव तले दूब ही न जमे,

            कोई काँटा न चुभे,

            कोई कली न खिले.

न वसंत हो, न पतझड़,

हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,

मात्र अकेलेपन का सन्नाटा.

            मेरे प्रभु!

            मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,

            ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,

            इतनी रुखाई कभी मत देना.

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