- गंगा में बैक्टीरिया के प्रयोग से किया जा रहा वाटर प्यूरिफिकेशन

- नई तकनीक से गंगा को निर्मल करने का सपना हो रहा सच

PATNA :

गंगा को निर्मल बनाने के लिए एक नई व्यवस्था को लागू किया गया है। इस व्यवस्था के लागू होने से गंगा में गंदगी का स्तर बहुत कम हो गया है।

आम तौर पर बैक्टीरिया को पानी साफ करने और इसके एक्टिव और इनएक्टिव होने के बारे में कम ही लोग जानते होंगे। लेकिन इस विधि से ही इन दिनों गंगा वाटर की सफाई बडे़ स्तर पर हो रही है। यह काम एनआईटी पटना के द्वारा किया जा रहा है। हाल ही में एनआईटी पटना के द्वारा किए गए इस काम की समीक्षा में पाया गया कि करीब 40 प्रतिशत तक गंगा के प्रदूषण में कमी लाई गई है। ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि जिस विधि से यह काम किया गया था, उसे अब और आगे बढ़ाया जाएगा।

सात प्वाइंट से होती है सफाई

गंगा में गंदा पानी सैकड़ों नालों के माध्यम से गिरता है। लेकिन अब जाली लग जाने और शहर के सात प्वाइंट से गंगा में पानी की साफ-सफाई की जा रही है। बायोरेमिडियल ट्रीटमेंट के तहत शहर के सात नालों में इस बायोरेमेडियल तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। इस विधि से सफाई के कारण गंगा के वाटर क्वालिटी में सुधार हुआ है। शिवपुरी, राजापुल, गांधी नगर, हड़ताली मोड, नेहरु नगर, आनंदपुरी, सरपेनटाइन रोड पर वाटर ट्रीटमेंट का काम किया जा रहा है।

दस किलोमीटर पहले ही व्यवस्था

एनआईटी पटना के सिविल डिपार्टमेंट के हेड डॉ रमाकर झा ने बताया कि गंगा के पानी की सफाई के लिए बायोरेमिडियल ट्रीटमेंट का प्रयोग किया जा रहा है। इसमें गंगा में गिरने वालों बडे़ नालों के सात विभिन्न प्वाइंट पर वाटर टैंक रखा गया है। 500 लीटर की क्षमता वाले इस टैंक में ऐसे खास बैक्टीरिया को डाला जाता है, जिनका मुख्य भोजन गंदगी है। टैंक में जाते ही ये अपनी कॉलोनियां बना लेते हैं। इन सभी सात प्वांइट से गंगा में पानी गिरने से करीब दस किलोमीटर पहले ही बैक्टीरिया गंदे पानी की जमकर सफाई करता है। गंगा में गिरने से पहले ऐसे सातों प्वाइंट में नालों की सफाई इससे होती है। इसके बाद ही गंगा में पानी छोड़ा जाता है।

इनएक्टिव से एक्टिव

डॉ रमाकर झा ने बताया कि पानी की सफाई करने वाले इन बैक्टीरिया को सुरक्षित रखा जाता है। जब तक इन्हें टैक में नहीं छोड़ा जाता है तब तक ये बैक्टीरिया इनएक्टिव होते हैं। टैंक में जाने के बाद इन्हें पानी और उसमें मौजूद गंदगी मिलता है। वास्तव में ये स्लज होते हैं, जो कि फाइटोप्लाज्म होते हैं। टैंक में ये बहुत तेजी से विकसित होते हैं और बड़ी कॉलोनी तैयार करते हैं। पाइप के माध्यम से करीब दस किलोमीटर तक की दूरी तय करने के बाद ये 24 घंटे बाद मर जाते हैं। लेकिन इससे पहले ये पानी की सफाई कर चुके होते हैं।

खर्चीला तरीका, आगे बेहतर करने की कोशिश

फिलहाल बायोरेमिडियल ट्रीटमेंट से काम किया जा रहा है। इसमें वाटर ट्रीटमेंट के लिए जिस बैक्टीरिया का प्रयोग किया जाता है उसे लैब में सुरक्षित रखना होता है। प्रोजेक्ट के जुडे़ सूत्रों ने बताया कि एक साल में करीब आठ से दस करोड रुपये इसमें खर्च किये जाते हैं। प्रोजेक्ट के एक्सपर्ट इसे कम खर्चीला बनाने की जुगत में लगे हैं।