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RANCHI : वीर बुधू भगत के कारण चान्हो के सिलागाई गांव की चौहद्दी इतिहास के पन्नों तक ही सीमित थी। वर्तमान से इसका कोई बड़ा वास्ता नहीं था। क्योंकि, 4-जी के जमाने में भी इस गांव में मोबाइल का सामान्य-सा नेटवर्क हर वक्त काम नहीं करता। सड़कें इस कदर खराब हैं कि एनसिएंट हिस्ट्री पढ़ने वाले किसी विद्यार्थी को प्रागैतिहासिक काल के किसी गांव को समझने के लिए इससे उपयुक्त कोई दूसरी जगह नहीं मिल सकती। बहरहाल, सिलागाई ने इतिहास के पन्नों से निकलकर वर्तमान के दरवाजे पर दस्तक दे दी है। वजह- ईद के मौके पर जमीन के छोटे से टुकड़े के लिए दो समुदायों के बीच हुआ विवाद। हम-आप जानते हैं कि उस हिंसा में दशरथ भगत नाम के एक नौजवान की मौत हो चुकी है, जो अपने घर का इकलौता कमाऊ सदस्य था। अब उसकी विधवा अपने चार बच्चों के साथ भविष्य को मुट्ठी में बांधने की जतन कर रही है।

सामाजिक बुनावट

रांची जिले के चान्हो प्रखंड के कुल 70 गांवों में से एक है सिलागाई। यह बड़ा गांव है। चान्हो थाने से करीब 7 किलोमीटर दूर स्थित 700 घरों वाले इस गांव में 500 घर आदिवासियों के, 150 घर मुसलमानों के और करीब 50 घर वैश्यों के हैं। यह पंचायत भी है। मुखिया हैं अंजू देवी, जो वीर बुधू भगत के खानदान की हैं। वैसे तो घरों के बनने और बसने को लेकर कोई बड़ा विभाजन नहीं है। हर टोले में मिश्रित आबादी है। हां, इस मिश्रण में कोई अल्पसंख्यक है, तो कोई बहुसंख्यक।

कहानी दशरथ भगत के टोले की

ईद से पहले दशरथ भगत के टोले में सबकुछ सामान्य था। हर जाति-समुदाय के लोग एक-दूसरे से मिलते-जुलते थे। वैश्यों की बहुलता वाले टोले में तीन घर मुसलमानों के भी हैं। इन्हीं में से एक घर है हाजी इस्माईल अंसारी का। पहले इनके घर बनने वाली सब्जी के मसाले बगल के वैश्यों के घर में सुगंध फैलाते थे, तो वैश्यों को घरों की दाल की छौंक से अंसारियों के घरों में खुशबू फैलती थी। वजह- इनके घर बिल्कुल पास-पास हैं। यह खुशबू आज भी फैलती, अगर इस्माईल अंसारी और दशरथ महतो जिंदा होते और उनके घरों में पकवान बनता। ईद के दिन हुई हिंसा में उपद्रवियों ने दशरथ महतो का कत्ल कर दिया, तो इसके अगले दिन देर रात इस्माईल अंसारी की लाश सड़क किनारे पड़ी मिली। डॉक्टरी रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण हार्ट अटैक बताया गया। 31 जुलाई को उन्हें दफनाया गया। अब उनके घर में ताला लटका है। बेटे शोएब को पुलिस पकड़ चुकी है। बाकी लोग किसी अनहोनी की आशंका से गैर गांव के अपने संबंधी के यहां पनाह ले चुके हैं। इस टोले के अनिल कुमार साहू कहते हैं- हमलोगों ने किसी को गांव छोड़कर जाने को नहीं कहा है। हम अमन पसंद लोग हैं। सारा विवाद मुसलमानों ने ही किया है।

थोड़ा-सा पीछे चलते हैं

वाकया तीन दिन पुराना है। 30 जुलाई का। हिंसा के अगले दिन जब पत्रकारों की टोलियां सिलागाई पहुंचीं, हाजी इस्माईल अंसारी गांव में ही थे। उनके घर में बाहर से ताला लटका था। आई नेक्स्ट के फोटोग्राफर ने खिड़की से झांकती उनकी तस्वीर उतारी, तो वह बोले- हम इटकी से आए हैं। यहां के नहीं हैं। इत्यादि-इत्यादि। उनके मन में खौफ था। चेहरे पर दहशत। आंखों में अनहोनी की आशंका। वह गांव के मदरसे की देखरेख करते थे। उम्र-करीब 80 साल। बीमार भी थे। दहशत ने उनकी बीमारी के लिए उत्प्रेरक का काम किया। उसी रात मस्जिद से लौटते वक्त उन्हें हार्ट अटैक आया और उनका इंतकाल हो गया। रात में उनके पोते अयूब ने सड़क किनारे उनकी लाश देखी, तो गांव वालों को इस मौत का पता चला। अगली सुबह (31 जुलाई) के आई नेक्स्ट में जब उनकी दहशतजदा तस्वीर छपी, तब तक वह इस दुनिया में नहीं थे। जिस वक्त हम जैसे पत्रकार अपने दफ्तर में खबरों की प्लानिंग में जुटे थे, करीब-करीब उसी वक्त रिम्स के डॉक्टर्स उनकी लाश का पोस्टमॉर्टम कर रहे थे। उसकी वीडियोग्राफी कराई गई, ताकि कोई विवाद नहीं हो।

ताजा-ताजा

गांव में रैफ और पुलिस के जवान गश्त कर रहे हैं। बड़े अफसरों की आवाजाही हो रही है। यह सुनिश्चित करने की कोशिश हो रही है कि बलवा फिर से नहीं हो। दुआ हम भी करते हैं कि इस गांव में फिर से कोई हिंसा नहीं हो। कोई मौत किसी के घर के चूल्हे की आग न बुझा पाए। क्योंकि, सिलागाई के इस वर्तमान से ज्यादा बेहतर तो उसका इतिहास है, जो कोर्स की किताबों में विरासत की गाथा के साथ करवटें लिया करता था।