- फसल की बर्बादी से बर्बाद हुआ अन्नदाता

-बैंक के कर्ज ने तोड़ा, साहूकार ने निकाला दम

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Meerut : पिछले कुछ दिनों से भौंडे सिंह गुमसुम सा रहने लगा था। न किसी से बोलता था और न किसी के पास बैठता था। यहां तक कि उसने ठीक से खाना पीना भी बंद कर दिया था। रात को किसी भी समय अचानक उठ जाना और बड़बड़ाना शुरू कर देना। परिजनों ने कई बार बात करने का प्रयास किया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कुछ दिन बात उसने जैसे खेत को ही अपना घर मान लिया था। गांव के कई लोगों ने उसको खेत पर अकेले बैठा देखा, किसी ने आवाज दी तो कोई जवाब नहीं दिया। फिर एक दिन खेत पर उसकी तबीयत बिगड़ गई। परिजनों ने अस्पताल में भर्ती कराया, लेकिन जान न बच सकी। और आखिरी बार केवल वह इतना ही बोल पाया कि कर्ज कैसे उतरेगा

सदमे से गई जान

ये दुख भरी कहानी मवाना तहसील के मटौरा गांव के एक किसान भौंडे सिंह की है। भौंडे सिंह की गांव में ही ढाई बीघा जमीन है। इस बार उसने गांव के ही एक साहूकार से कर्ज लेकर गेहूं की फसल बोई थी। फसल आने पर शायद साहूकार का कर्ज उतार देता, लेकिन कुदरत के कहर ने फसल को बर्बाद कर दिया और इस सदमे ने भौंडे सिंह की जान ले ली।

नब्बे हजार उठाया था कर्ज

भौंडे सिंह गांव का एक छोटा सा काश्तकार था। उसकी ढ़ाई बीघा जमीन का टुकड़ा ही उसकी दो जून की रोटी का जरिया था। भौंडे के पुत्र लीलू ने बताया कि पिछले एक साल के भीतर उनकी दो भैंस मर गई थी। नई भैंस खरीदने के लिए साहूकार से ब्याज पर पैसा उठाया, तो सोचा फसल बेचकर चुका देंगे। लेकिन पिछली बार गन्ने का पैसा मिल ने नहीं दिया। इस बार गेहूं बोया मगर इसको मौसम की मार खा गई। इस बीच ब्याज पर ब्याज लगने से कर्जा पचास हजार तक पहुंच गया। बैंक से भी चालीस हजार का लोन लिया था, उस पर भी ब्याज चल रहा था। समय पूरा होने पर बैंक के नोटिस और ऊपर से साहूकार का रोज घर आकर बेइज्जत करना। रोज-रोज की जिल्लत ने उनका जीना मुहाल कर दिया था।

सोलह कनस्तर अनाज

लीलू ने बताया कि इस बार उनके ढाई बीघा खेत में केवल क्म् कनस्तर ही गेहूं निकल पाया। इन सोलह कनस्तर गेंहू उनके तीन महीने भी नहीं निकलेंगे। फिर बाकी नौ माह का गुजारा कैसे होगा। इसका भगवान ही मालिक। ऐसे में घर में चूल्हा ठंडा पड़ जाएगा।

सहानुभूति और आश्वासन

मुफलिसी की लड़ाई से हारे भौंडे सिंह की मौत के बाद मटौरा प्रशानिक अफसरों और राजनेताओं का ठिकाना बन गया। पिछले तीन दिनों में शायद ही कोई ऐसा अफसर या नेता रहा हो, जिसने जाकर किसान की मौत पर दुख न प्रकट किया हो, लेकिन सहायता के नाम पर मृतक के परिवार के हिस्से में सहानुभूति और आश्वासन ही आया। हमदर्द बने लोगों ने शासन से मुआवजा दिलाने के खूब दावे किए, लेकिन मदद के आगे सभी बौने साबित हुए।

खेती नहीं घाटे का सौदा

किसानों की मानें तो खेती अब घाटे का सौदा बनकर रह गई है। फसलों की लागत, आमदनी पर भारी पड़ रही है। या यूं कहें तो दिन-रात की मेहनत से केवल दो जून की रोटियां ही हाथ आ रही हैं। कोई और खाने कमाने का साधन नहीं है। कोई और विकल्प हो तो खेती छोड़ दें।

ये है घाटे का गणित

अगर एक बीघा जमीन पर लागत और आमदनी की कैल्कुलेशन करें तो परिणाम चौंकाने वाले आते हैं।

बीज -- गेहूं पंद्रह किलो --- ख्ब्0 रुपए

खाद डाई -- दस किलो ---क्ख्0 रुपए

यूरिया ---एक कट्ठा ---फ्भ्0 रुपए

सिंचाई -- चार बार ---म्00 रुपए

जुताई ---तीन बार --900 रुपए

थ्रेसर -- दस फीसद --म्00 रुपए

कटाई -- दस किलो --क्भ्0 रुपए

कुल लागत -- ख्980 रुपए

प्राप्त फसल --चार कुंतल गेहूं

कीमत -- म्000 रुपए

कर्ज तले दबे किसानो की पुकार

कर्ज की मार से मरे भौंडे सिंह तो केवल एक बानगी भर है। उसके गांव में और न जाने कितने किसान ऐसे हैं, जो बैंक और साहूकार के कर्ज के बोझ से कराह रहे हैं।

तीन बीघा जमीन से आठ लोगों का परिवार पलता है। इस बार तो रोटी मिलने के लाले पड़े हैं। दो बेटियां शादी लायक होने को आई तो बैंक से पचपन हजार और बाकी साहूकार से कर्जा उठाया। जैसे-तैसे बेटियों के हाथ पीले किए, तो कर्जा उतारने के लिए फसल पर निगाह टिका दी। अब फसल तो रही नहीं जमीन बची है। उसी को बेच कर कर्ज उतरेगा।

कंवरपाल शर्मा, काश्तकार

पिछली बार मिल ने पेमेंट नहीं किया तो इस बार बीस हजार का कर्ज उठाना पड़ गया। दो बीघा जमीन है उसमें गेहूं बोया। फसल लहराई तो कर्ज उतारने की सोची, लेकिन मौसम की मार ने कर्जा उतारना तो दूर मुंह का निवाला भी छीन लिया।

अशोक शर्मा, काश्तकार

भाई साहब न पूरी तरह से किसान हैं और पूरी तरह से मजदूर। साढ़े तीन बीघा जमीन है। उस पर 8भ् हजार का साहूकार से लिया कर्ज। गेहूं तो बारिश ने तबाह कर दिया। जिंदगी कर्ज ने नरक कर दी। अब जिंदगी मौत से भी बदतर होगी।

नीरज शर्मा, काश्तकार

चार बीघा जमीन है। मतलब बस रोटियां मिल जाती थी। बच्चों की शादी करने के फेर में डेढ़ लाख का कर्ज उठाना पड़ गया। जमीन के ग्राहक नहीं आ रहे। साहूकार दबाव बढ़ रहा है। क्या होगा कुछ समझ नहीं आ रहा।

सुखबीर सिंह, किसान

पहले चीनी मिल, फिर मौसम और अब कर्ज ने जिंदगी तबाह कर दी। एक ओर जहां खाने का इंतजाम नहीं हो पा रहा। वहीं साहूकार का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।

तेजराम, किसान

Posted By: Inextlive