कर्नाटक सत्ता की कुंजी किन जातियों के पास?
लहर के अभाव ने चुनावी समर में उतरी लगभग सभी पार्टियों के दिग्गजों की परेशानियों को बढ़ा दिया है.कर्नाटक का राजनीतिक मैदान कई मायनों में काफी अलग है. यहाँ जातिगत आधार पर ही चुनाव लादे जाते रहे हैं.जिन दो महत्वपूर्ण जातियों के हाथों में राजनीति का भविष्य रहा है वो हैं लिंगायत और वोक्कालिगा. कर्नाटक में मुख्यमंत्री अमूमन इसी समुदाय से ही रहे हैं.इसके अलावा चरवाहा जाति कुरुबा की तादात भी अच्छी खासी है.बी एस येदियुरप्पा की वजह से ही लिंगायत का इतना समर्थन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिला कि उसने दक्षिण भारत में अपना परचम कर्नाटक से ही लहरा दिया.पेचीदे समीकरणयेदियुरप्पा की बगावत के बाद भाजपा की बड़ी चुनौती है अपने लिंगायत वोट बैंक को बचाए रखना. हालांकि मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर भी इसी समुदाय से आते हैं.
मगर अब देखना ये है कि राज्य की आबादी के 21 प्रतिशत लिंगायत, येदियुरप्पा के साथ ही रहते हैं या वो शेट्टर का साथ देते हैं. हालांकि येदियुरप्पा की पकड़ इस समुदाय पर आज भी मज़बूत है.जहाँ तक वोक्कालिगा का सवाल है तो इस समुदाय की आबादी 18 प्रतिशत है और जनता दल (सेकुलर) के एच डी देवेगौडा इसी समुदाय से आते हैं.
दक्षिण कर्नाटक में इनकी आबादी ज्यादा है और जनता दल (सेकुलर) के एच डी कुमारस्वामी को उम्मीद है कि अपनी जाति के समर्थन के सहारे वो सत्ता के करीब पहुँच सकते हैं.यहाँ जनता दल (सेकुलर) और कांग्रेस के बीच टक्कर देखी जा रही है जबकि भाजपा वोक्कालिगा समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाने में कुछ हद तक कामयाब होने का दावा करती रही है.अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग की तादाद कर्नाटक में सबसे ज्यादा है. ये पूरी आबादी का 32 प्रतिशत हैं.इसलिए मायावती ने इस बार विधान सभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के 175 उम्मीदवारों को खड़ा किया है. बहुजन समाज पार्टी को उम्मीद है कि अगर जाति का सिक्का चल गया तो सत्ता के करीब वो भी आ सकते हैं.यहाँ 17 फीसदी अल्पसंख्यक भी हैं जिसमें 13 फीसदी मुसलमान और चार फीसदी ईसाई हैं. यही वजह है कि भाजपा से बगावत करने के बाद येदियुरप्पा ने अल्संख्यकों को रिझाने की काफी कोशिश की है.अल्पसंख्यकों का समर्थनइस वर्ष के जनवरी महीने में बीबीसी से विशेष बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा था कि अब उन्हें अल्पसंख्यकों का समर्थन मिल चुका है. उनका कहना था कि इसकी वजह यह है कि अब उनकी भाजपा में वापसी की संभावनाएं कम हैं.
जातिगत आधार के अलावा क्षेत्रवाद ने भी कर्नाटक के चुनावों में बड़ी भूमिका निभायी है. 1956 में राज्य का पुनर्गठन हुआ और कई इलाकों को भाषा के आधार पर कर्नाटक से जोड़ा गया जो पहले बॉम्बे प्रेसिडेंसी और हैदराबाद के निजाम के अधीन रहे थे.इन इलाकों को मुंबई-कर्नाटक और हैदराबाद-कर्नाटक के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा मैसूर का इलाका भी है.राज्य के दक्षिण का इलाका पश्चिमी घाट का इलाका है. मंगलौर और उडुपी के इस तटवर्तीय इलाके में भाजपा का खासा दबदबा रहा है. मगर हाल ही में हुए निकाय के चुनाव में भाजपा को काफी नुकसान उठाना पड़ा है.