दिल्ली के शालीमार बाग के मैक्स सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में नवजात जुड़वाँ बच्चों को मृत घोषित कर दिया गया मगर उनमें से एक बच्चा जीवित था। अब उस बच्चे की भी मौत हो गई है। परिवार अस्पताल पर लापरवाही का आरोप लगा रहा है।

दूसरा मामला गुरुग्राम का है। एक प्राइवेट अस्पताल में सात साल की एक बच्ची का इलाज चल रहा था। बच्ची को डेंगू हुआ था। दो हफ्ते के इलाज के बाद बच्ची की मौत हो गई थी। इसके बाद अस्पताल ने परिवार को 16 लाख का बिल थमा दिया था।

इस पर परिवार का कहना था कि दो हफ्ते के इलाज के दौरान अस्पताल ने 600 सिरिंज और 1600 जोड़े से भी ज़्यादा दस्तानों के लिए बिल भरने को कहा।

लेकिन क्या वाकई अस्पताल में अपने परिजन को भर्ती करके आम आदमी लाचार हो जाता है? या फिर उसके भी कोई अधिकार हैं?

अस्पताल में आपका परिजन भर्ती हो तो कुछ ऐसे क़ानून है जिनकी जानकारी आपको होनी चाहिए वरना आपको अस्पताल में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है।

 

क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट 2010

इस अधिनियम के तहत हर अस्पताल, क्लिनिक या फिर नर्सिंग होम को रजिस्टर करना अनिवार्य होता है। साथ ही एक गाइडलाइन के तहत हर बीमारी के इलाज और टेस्ट की प्रक्रिया निर्धारित है और ऐसा न करने पर इस एक्ट में जुर्माने का प्रावधान भी है। हालांकि पुष्पा गिरिमाजी के मुताबिक सभी राज्यों ने अभी तक इसे लागू नहीं किया है।

एक उपभोक्ता के नाते हमे ये पता करना चाहिए कि हमारे राज्य में ये कानून लागू है या नहीं। वरना जिस राज्य में ये लागू है वहां से पता करना चाहिए आपके मरीज को जो बीमारी डॉक्टर बता रहें है उसके इलाज की प्रक्रिया और टेस्ट क्या होने चाहिए।

 

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एमआरटीपी एक्ट 1969

इस कानून के तहत दवा विक्रेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए। इसके अनेक प्रावधानों के तहत आपको कोई भी अस्पताल वहीं से दवाइयां खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

 

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इसी जर्नल में ये भी लिखा गया है कि मरीज़ अपने बीमारी के बारे में सेकेंड ओपिनियन या दूसरे डॉक्टर की सलाह ले सकता है। ऐसी सलाह के लिए कोई भी डॉक्टर किसी भी मरीज़ या परिजन को हतोत्साहित नहीं कर सकता

है। लेकिन दोनों डॉक्टरों के सुझाव बिलकुल अलग पाए जाने पर ये मरीज़ और उनके परिजन पर निर्भर है कि वो किन के बताए रास्ते पर चलते हैं। ऐसी सूरत में किसी भी डॉक्टर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।

इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में ये भी लिखा गया है कि ये डॉक्टर की जिम्मेदारी है कि हर ऑपरेशन / सर्जरी के पहले मरीज़/ परिजन को संभावित खतरे के बारे में पूरी जानकारी दे और उनसे सहमति पत्र पर दस्तखत भी ले।

किसी भी दूसरे अस्पताल में मरीज़ को किसी भी सूरत में शिफ्ट करने के पहले मरीज़ या उसके परिजन को समय रहते इसकी सूचना मिलनी चाहिए ये मरीज़ का अधिकार है। ऐसी सूरत में मरीज़ की हालात खतरे से बाहर हो, ये सुनिश्चित करना डॉक्टरों का कर्तव्य है ये भी इस जर्नल में कहा गया है।

आखिर में आप चाहें तो मरीज़ से जुड़े इलाज की पूरी केस फाइल अस्पताल से मांग लें। अमूमन अस्पताल खुद ये देते नहीं है इसलिए बहुत जरूरी है कि मरीज़ अस्पताल से छुट्टी के समय ऐसा ज़रूर करें।

Posted By: Chandramohan Mishra