पं. दीनदयाल उपाध्‍याय महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्यायजी पत्रकार तो थे ही साथ ही उच्‍चकोटि के चिन्तक और लेखक भी थे। हम आप को आज उपाध्‍याय जी के ऐसे विचार बताने जा रहे हैं जो आज भी प्रासंगिक हैं।


हमे खुद को पहचानना सीखना चाहिएराजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था। उन्होंने कहा था कि भारत जिन समस्याओं का समाना कर रहा है उसका मूल कारण इसकी राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा है। आजादी से पूर्व जब हम अंग्रेजों के गुलाम थे तब हम लोगों ने अंग्रेजी वस्तुओं का विरोध करने में तब गर्व महसूस किया। जब वे अंग्रेज हम पर शासन कर रहे थे। हैरत की बात है कि अब जब अंग्रेज जा चुके हैं तब हमारा समाज पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन चुका है। मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है। इसे जो चाहे प्राप्त कर सकता है। इस पर किसी की सत्ता नहीं चलती है। मनुष्य प्रेम का अपनाता है या क्रोध को
जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा इसके पीछे की एकता को खोजने का प्रयास किया है। शक्ति हमारे असंयत व्यवहार में नहीं बल्कि संयत कारवाई में निहित होती है। उन्होंने कहा कि अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है। मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं। एक तरफ क्रोध और लोभ तो दूसरी तरफ प्रेम और त्याग। हमे किस प्रवृत्ति को अपनाना है ये हमारे व्यवहार में निहित है। नैतिकता के सिद्धांत किसी के द्वारा नहीं बनाये जाते हैं। इन्हें हमे खुद ही खोजना पड़ता है। उन्होंने कहा कि अंग्रजी शब्द रिलिजन धर्म के लिये सही शब्द नहीं है। जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है तब हमे संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं।National News inextlive from India News Desk

Posted By: Prabha Punj Mishra