1767 में स्थापित प्रतिमा का मदनपुरा के पुरातन दुर्गाबाड़ी में नवरात्र पर होता है विशेष पूजन

वाराणसी (ब्यूरो)धर्म, शिक्षा, चिकित्सा और अध्यात्म की नगरी काशी के नाम एक से बढ़कर एक उपलब्धियां जुड़ी हुई हैैं। इन दिनों शारदीय नवरात्र की पावन बेला चल रही है। बनारस में नवरात्र को बहुत ही खास अंदाज में मनाए जाने के लिए जाना जाता है। शहर में मदनपुरा के पुरातन दुर्गाबाड़ी स्थान की बड़ी महत्ता और कई कहानियां जुड़ी हुई हैैं। यहां 255 साल पुरानी मिट्टी की बनी मां दुर्गा की प्रतिमा को देख कर कम आश्चर्य नहीं होता है। यहां की देवी प्रतिमा को बनाने वाले कलाकार की कारीगरी कहिए या चमत्कार। सन 1767 के आसपास स्थापित इस प्रतिमा का आज तक विसर्जन नहीं किया जा सका है। मदनपुरा के पुरातन दुर्गाबाड़ी में प्रति वर्ष पारंपरिक अंदाज में पूजा लगातार होती आ रही है। इस पुरातन प्रतिमा का नवरात्र पर विशेष पूजन भी किया जाता है.

दुर्गापूजा की रखी आधारशिला

काशी में दुर्गापूजा की शुरुआत कब हुई। इसके बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं है। लेकिन बनारस में पहली बार 18वीं सदी के तीन या चार दशक में सन 1730 से 1740 के बीच में बंगाल के कुछ अमीर परिवारों का गृहस्थ के रूप में काशी आना शुरू हुआ। इसमें सबसे पहले चौखम्भा मुहल्ले के बंगाली ड्योढ़ी के मित्र परिवार के लोग आये। उन्होंने ही दुर्गापूजा की आधारशिला रखते हुआ प्रतिमा स्थापित कर पूजा व पंडाल की शुरुआत की.

बनारस में दूर्गापूजा की शुरुआत

समय के गुजरने के साथ ही डेढ़ दशक के अंदर ही कई दर्जन संपन्न बंगीय परिवार काशी की पवित्र धरती पर आए। इसमें प्रमुखता से केदारघाट इलाके के दीवान इन्द्रनारायण बापुली का परिवार रहा। इसी शहर के गरुणेश्वर मुहल्ला (मदनपुरा) में सन 1767 के आसपास मुखर्जी परिवार के सदस्यों को भी काशी आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां पर पहले से ही बंगलावासियों की बहुलता थी। इन्हीं में हुगली जिले के मदन मुखर्जी का परिवार रहा। इसी परिवार नें बंगला संस्कृति की प्रतीक मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा आरंभ किया।

परंपरा आज तक बरकरार

बनारस में व्यापक तौर पर दुर्गापूजा की शुरुआत हो गई। यहीं पर गरुणेश्वर महादेव मंदिर के बगल में पुरातन दुर्गाबाड़ी स्थित है। जहां पर मिट्टी की बनी मां दुर्गा की प्रतिमा विद्यमान है। सन 1767 के आसपास स्थापित इस प्रतिमा का आज तक विसर्जन नहीं किया गया है। पुरातन दुर्गाबाड़ी में यह पूजा बरसों से लगातार होती चली आ रही है। तब से लेकर आज तक प्रतिमा अपने मौलिक रूप में बरकरार है।

मूल स्वरूप में है दुर्गा प्रतिमा

कहते हैं कि मूर्ति विसर्जन के पूर्व रात्रि में मुखर्जी परिवार को स्वप्न में यह आदेश मिला कि मुझे यहीं रहने दिया जाए। पहले तो लोगोंं ने इस पर ध्यान नहीं दिया और विसर्जन की तैयारी हो गई। लेकिन जब विसर्जन की बेला आई और लोग नम आंखों से विदाई के लिए लोग प्रतिमा को उठाने लगे तो वह टस से मस नहीं हुई। काफी प्रयास के बाद भी प्रतिमा अपने स्थान से नहीं हिली। तबसे यह प्रतिमा अपने स्थान पर उसी तरह से है। वैसे तो पूरे साल दुर्गा प्रतिमा की पूजा की जाती है लेकिन नवरात्र के दिनों में यहां पर विशेष पूजा होती है.

मिट्टी व पुआल की आलौकिक प्रतिमा

कच्ची मिट्टी व पुआल की बनी इस प्रतिमा का इतने सालों तक इसी तरह रहना भी वैज्ञानिकता से कम नहीं है। सन 1973 के आसपास दुर्गाबाड़ी और प्रतिमा का जीर्णोद्धार कराया गया था। प्रतिमा का शस्त्र हर साल बदला जाता है। इस प्रतिमा की अलौकिक छटा देखकर कोई नहीं कह सकता है कि यह इतनी प्राचीन भी हो सकती है.

मां के विर्सजन के दिन प्रतिमा को हटाया नहीं जा सका। उस दिन के बाद से आम दिनों में गुड़ और चने से पूजा होती है। पुराने स्ट्रक्चर में कोई बदलाव नहीं है। षष्टी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी को विशेष पूजा होती है.

देवाशीष दास, सचिव, बंगीय समाज वाराणसी

Posted By: Inextlive