उत्तराखंड रोडवेज लगातार घाटे में रहता है। रोडवेज की माली हालत इतनी खस्ता है कि जिन ड्राइवर्स और कंडटर्स पर यह निगम टिका हुआ है उन्हें कई-कई महीनों तक सैलरी नहीं दी जा रही है। सैलरी के लिए अक्सर उन्हें हड़ताल की चेतावनी देनी पड़ती है तब बकाया सैलरी का कुछ हिस्सा उन्हें मिल पाता है। सवाल यह है कि जब प्राइवेट बस और ट्रेकर ऑपरेटर्स मुनाफा कमा सकते हैं खासकर यात्रा सीजन में वे अच्छी कमाई कर लेते हैं तो बसों का अच्छा खासा बीड़ा मौजूद होने के बावजूद रोडवेज घाटे में क्यों है। दैनिक जागरण आई नेक्स्ट से यह जानने के लिए रोडवेज बसों का रियलिटी चेक किया।

देहरादून ब्यूरो। रोडवेज मैनेजमेंट की मानें तो उनके पास 1200 बसों का बीड़ा मौजूद है। इनमें कुछ पुरानी बसें हैं। इनमें सभी बसें पूरी तरह से फिट हैं। कुछ बसें पुरानी होने के बावजूद ठीक-ठाक हालत में हैं और लंबे रूट पर अच्छी सेवा दे रही हैं। लेकिन, वास्तव में ऐसा है नहीं। रोडवेज की 50 परसेंट से ज्यादा ऐसी जो इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि किसी तरह से हांफते-हांफते अपना सफर पूरा कर रही हैं।

नई बसें सिर्फ दिल्ली के लिए
रियलिटी चेक में यह बात सामने आई कि रोडवेज के पास जो नई और पूरी तरह से फिट बसें हैं, उनमें से ज्यादातर दिल्ली रूट पर ही चलाई जा रही हैं। बाकी रूट पर पुरानी और कुछ पूरी तरह से खटारा हो चुकी बसें चलाई जा रही हैं। देहरादून आईएसबीटी पर यूपी के एक दूरस्थ शहर से लौटी बस के ड्राइवर का दावा था कि जो बस उत्तराखंड रोडवेज के सबसे लंबे रूट पर चलाई जा रही है, वह 15 वर्ष पुरानी है और लाखों किमी चल चुकी है।

पहाड़ों के हिस्से बूढ़ी बसें
राज्य के ज्यादातर रूट पहाड़ी हैं, लेकिन इन रूटों पर ज्यादातर बूढ़ी बसें चल रही हैं। ये बसें किसी तरह से हांफते-हांफते अपना सफर पूरा करती हैं। खास बात यह है कि बाहर से इन बसों की डेंटिंग-पेंटिंग ऐसी है कि बसें नई जैसी लगती हैं। लेकिन बस में सवार होते ही बस का टूटा-फूटा स्टेयरिंग, फटे-पुराने सीट कवर और उखड़ा हुआ पेंट सारी कहानी कह देता है।

बस का एक सफर
उत्तराखंड रोडवेज की एक बस सुबह 5 बजे मंडल गोपेश्वर से दून के लिए आती है। चमोली से कुछ किमी आगे बढ़ते ही बस में खराबी आ जाती है। सोनला में बस रोक दी जाती है। यहां एक प्राइवेट वर्कशॉप है, लेकिन बंद है। करीब एक घंटे इंतजार के बाद वर्कशॉप खुलती है, तब जाकर बस को चलने लायक बनाया जाता है और बस करीब दो घंटे लेट होकर आगे बढ़ती है। मामूली चढ़ाई आते ही बस हांफने लगती है। हल्की चढ़ाई पर बस 10 से 12 किमी और ज्यादा चढ़ाई आने से 7 से 8 किमी की स्पीड से ज्यादा नहीं बढ़ पाती। बस पर लगने वाले हर ब्रेक के साथ ही जोरदार आवाज आती है, जो बस में सवार हर पैसेंजर को अंदर तक दहला देती है। पूछने पर बस ड्राइवर ने बताया कि बस 7-8 साल पुरानी हो सकती है, लेकिन ज्यादा वास्तव में बस की उम्र 10 वर्ष से ज्यादा है। चौड़ी सडक़ बन जाने के बाद जहां प्राइवेट बसें श्रीनगर से देहरादून का सफर 3 घंटे में पूरा कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ रोडवेज की खटारा बसों से 5 घंटे तक का समय लग रहा है।

मजबूरी की सवारी रोडवेज
उत्तराखंड के पर्वतीय रूट पर जाने वालों के लिए रोडवेज बसें सिर्फ मजबूरी का सहारा रह गई हैं। आमतौर पर लोग प्राइवेट बसेज या फिर ट्रैकर से ही यात्रा करते हैं। रोडवेज पहाड़ों पर अच्छी बसें चलाकर और बसों की संख्या बढ़ाकर राजस्व बढ़ा सकती है, लेकिन ऐसी कोई योजना पाइपलाइन में नहीं है और तो और बड़ी संख्या में उत्तराखंड आने वाले तीर्थ यात्रियों और टूरिस्ट के लिए भी रोडवेज के पास कोई व्यवस्था नहीं है।

Posted By: Inextlive