कहा जाता है कि समाजवाद मनुष्य को पशु बना देता है। ऐसे में बड़े बड़े जानकार कहते हैं कि मनुष्य आज पशु से भी बदतर हो गया है, इसलिए अगर आदमी पशु भी बन जाए तो हर्ज क्या है?

इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी उपयोगी हैं। पहली बात तो यह है कि आदमी पशु से भी बदतर बन जाए, तब भी आदमी है और पशु से बदतर बनने की क्षमता भी आदमी की क्षमता है, पशु की क्षमता नहीं है। और आदमी क्योंकि पशु से बदतर बन सकता है, इसलिए देवताओं से श्रेष्ठ भी बन सकता है। ये दोनों उसकी क्षमताएं हैं। पशु के पास दोनों क्षमताएं नहीं हैं। जो सीढ़ी ऊपर ले जाती है, वह नीचे भी ला सकती है। सीढ़ी दोनों तरफ जा सकती है। कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से ऊपर चला जाए और

कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से नीचे आ जाए, लेकिन ये सीढ़ी की दोनों क्षमताएं एक ही साथ होती हैं अगर हम ऐसा सोचते हों कि मनुष्य सिर्फ ऊपर ही चढ़ सके, अगर

ऐसी सीढ़ी हो, तो फिर मनुष्य की स्वतंत्रता न रह जाएगी। वह नीचे भी उतर सकता है, यह भी उसकी स्वतंत्रता है।

पशु बनना ज्यादा बेहतर

पशु परतंत्र है, अच्छा है तो परतंत्र है, बुरा है तो परतंत्र है। पशु के जीवन में न तो कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। अच्छा और बुरा वहां होता है जहां चुनाव है, जहां चुनाव करने की शक्ति है। अगर कोई मनुष्य पशु से भी बदतर है, तो वह मनुष्य देवताओं से श्रेष्ठ हो सकता है इसीलिए पशुओं से बदतर हो सका है। मैं किसी मनुष्य का पशु बनना पसंद न करूंगा, क्योंकि पशु बनने का मतलब यह है कि फिर न तो पशु से बदतर बन सकेंगे आप और न फिर देवताओं से श्रेष्ठ बन सकेंगे आप। फिर तो पशु से और बेहतर मशीन है। पशु बुरा तो नहीं कर सकता, अच्छा नहीं कर सकता, लेकिन पशु अपने को दुख पहुंचाने योग्य कुछ कर सकता है, सुख पहुंचाने योग्य कुछ कर सकता है। मशीन वह भी नहीं कर सकती। अगर हमें सारी ही दिक्कतों के बाहर हो जाना है तो हमें मशीन हो जाना अच्छा है।

बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?: ओशो

क्या आप समझाने की अनुकंपा करेंगे कि रहस्य-स्कूल का ठीक-ठीक कार्य क्या है?: ओशो

समाजवाद से आदमी मशीन बन रहा

समाजवाद पशु ही नहीं बनाएगा, समाजवाद मूलत: आदमी को मशीन बनाने की कोशिश है। मैं इस बात से राजी नहीं हो सकता हूं। मैं मानता हूं कि मनुष्य के पशु होने की क्षमता उसकी बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। उससे विपरीत भी वह कर सकता है, दोनों के लिए स्वतंत्र है और दोनों के लिए सदा स्वतंत्र रहना चाहिए। जिस दिन आदमी अच्छा ही हो सकेगा, बुरा न हो सकेगा, उस दिन अच्छे होने में भी आनंद समाप्त हो जाएगा। एक छोटा बच्चा निर्दोष दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं इस छोटे बच्चे की निर्दोषता और सरलता की तारीफ नहीं कर सकता, क्योंकि बच्चा अभी जवान होगा और बुरे होने की क्षमता उसमें आएगी। लेकिन जब कोई बूढ़ा आदमी सरल और निर्दोष हो जाता है, तब मैं उसकी तारीफ जरूर करता हूं, क्योंकि उसने बुराई के मौके को छोड़कर वह अच्छा बना।

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