गोरखपुर (ब्यूरो)।अपनी किताब 'अ कंट्री कॉल्ड चाइल्डहुडÓ के बारे में बातें साझा करते हुए उन्होंने बताया कि उनके पिता कला के अद्भुत प्रेमी थे और 'नवलÓ उपनाम उन्होंने ही रखा था। मेरे घर में मेरे दादाजी कट्टर जनसंघी थे और मेरी दादी पक्की कांग्रेसी थीं। खाने की मेज पर अक्सर बहस मुबाहिसा का दृश्य जरूर रहता था, लेकिन उनमें कभी भी टकराहट नहीं हुआ करती थी।

फिल्म के लिए बंक करने लगीं स्कूल

मेरे जिंदगी की पहली फिल्म दुर्गेश नंदिनी थी और उसमें तलवारबाजी के दृश्यों को देखकर मैं डर गई थी। मैंने उस समय तय किया था कि मैं इसके बाद कभी ऐसे दृश्य नहीं देखूंगी। लेकिन मेरे भाई-बहनों ने जब उस फिल्म को देखा तो उनकी प्रतिक्रिया कुछ और थी। वे मस्ती में उछल कूद रहे थे कि उन्होंने शम्मी कपूर की फिल्म देखा। इसके बाद सिनेमा को लेकर उनका भी रुझान बदला और वे स्कूल बंक कर फिल्म देखने जाने लगीं।

मां मीना कुमारी की फैन

उन्होंने बताया कि उनकी मां मीना कुमारी के बहुत बड़ी फैन थीं। उनके हाव-भाव और व्यक्तित्व ने मुझे इस कदर प्रभावित किया कि वह सिनेमा से जुड़ती चली गईं। उन्होंने बताया कि मैंने उनका अनुकरण भी किया और मेरे लिए सबसे बड़ी खुशनसीबी यह रही कि लोगों ने मुझे मीना कुमारी से जोडऩा भी शुरू कर दिया। अपने भाई बहनों के साथ बिताए लम्हों के सवाल पर उन्होंने बताया कि बचपन में वे सभी भाई बहनों के साथ खूब मस्ती किया करतीं थीं और उन्होंने अपने घर में खूब शैतानियां कीं थीं।

बदल गया नजरिया

अमृतसर से न्यूयॉर्क के सफर पर पूछे गए सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अमृतसर स्वाभाविक रूप से मेरी जिंदगी के शुरुआती चरण का एक अहम केंद्र रहा है। जब दीप्ति अमेरिका गईं और उन्होंने वहां अपनी पढ़ाई शुरू की तो वहां के माहौल को देखकर उनका नजरिया भी बदल गया। खासकर अभिनय को लेकर उन्होंने ग्लोबल सिनेमाई परिदृश्य में बहुत से बदलावों को महसूस किया।

फौजियों को देखने के लिए उमड़ते थे लोग

इंडिया-चाइना युद्ध के समय की बातें साझा करते हुए उन्होंने लद्दाख, पंजाब और उत्तर भारत के जनजीवन पर पड़े प्रभाव की चर्चा की। इस दौरान उन्होंने सिनेमा जगत पर पड़े प्रभाव के बारे में भी बताया कि किस तरह फौजियों को देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे। महिलाएं उनके लिए खाने पीने के इंतजाम में लग जातीं थीं, भय के माहौल के बीच किस तरह लोग घरों में छुपते थे और उत्साह में बच्चे बाहर भागा करते थे।

महिलाओं को सीमा पर भेजने के पक्षधर

उन्होंने बताया कि उनके पिता उस समय महिलाओं को सीमा पर भेजने के पक्षधर हुआ करते थे जिनसे हमें भी कुछ नया करने की प्रेरणा मिली। लाहौर और अमृतसर के बीच के समाज में उस समय जिंदगी के उन खूबसूरत लम्हों की तुलना युद्ध की निंदा से हुआ करती थी। उनके परिवार ने तो विश्वयुद्ध से लेकर भारत के विभाजन की त्रासदी तक को देखा। मेरे जिंदगी का साहित्य मेरी मां की कहानियों से है। मेरी परवरिश में धार्मिकता का अभाव ही रहा। युद्ध और प्रवजन के बीच की कहानियों के बीच ही मैं पली बढ़ी और मेरी जिंदगी अनवरत यात्रा की तरह चलती रही। उन्होंने अपने पुस्तक के कुछ चुनिंदा अंशों का पाठ भी किया और अपने बचपन के कुछ चुटीले अनुभव भी साझा किए। सत्र का मॉडरेशन दिव्यांशी श्रीवास्तव ने किया। कार्यक्रम का संचालन प्रकृति त्रिपाठी ने किया।