लखनऊ (ब्यूरो)। लोहिया संस्थान में ऑनलाइन फीस जमा होने के बावजूद खाते न पहुंचने की जानकारी के एक माह के बाद भी अधिकारियों को इसकी जानकारी नहीं हो पा रही है कि आखिर घपला कितने का हुआ है। इसके लिए एक माह पूर्व बनाई गई जांच कमेटी अभी तक इसकी तह तक पहुंच नहीं पाई है। जिसके बाद कमेटी द्वारा जांच के लिए अतिरिक्त समय मांगा है।

जांच के लिए मांगा समय

लोहिया संस्थान की ओपीडी में रोजाना दो से तीन हजार मरीज आ रहे हैं। यहां पर हॉस्पिटल इनफॉरमेशन सिस्टम व्यवस्था लागू है। मरीज व तीमारदार नगद व ऑनलाइन फीस जमा कर सकते हैं। हालांकि नगद फीस तो संस्थान के बैंक खाते में नियमित जमा हो रही है। जबकि ऑनलाइन फीस में घपले की बात सामने आई थी। इसके बाद संस्थान द्वारा जांच कमेटी गठित करने समेत चार संविदा कर्मचारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। लेकिन, जांच कमेटी का गठन हुए एक महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है। अभी तक घपले की रकम तक का पता नहीं चल सका है। अब कमेटी ने जांच के लिए और वक्त मांगा है। संस्थान के अधिकारियों का कहना है घपलेबाजों पर सख्त कार्रवाई होगी। किसी भी दोषी का बख्शा नहीं जाएगा।

लोहिया के रेफरल हॉस्पिटल में प्रिनेटल जांच शुरू

लोहिया संस्थान के शहीद पथ स्थित राम प्रकाश गुप्ता मेमोरियल मदर एंड चाइल्ड स्टेट रेफरल हॉस्पिटल प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग में प्रीनेटल जांचों की सुविधा शुरू हो गई है। इसमें गर्भस्थ महिलाओं का अल्ट्रासाउंड, कोरियोनिक विलस सैंपलिंग और एमनियोसेंटेसिस आदि जांचें शामिल हैं। इस जांच में डाउन सिंड्रोम के अलावा अन्य गुणसूत्रों की खराबी और जेनेटिक डिस्आर्डर के कारणों का भी पता चल सकता है।

जांच से होगी काफी आसानी

प्रसूति एवं स्त्री रोग विभाग ने जेनेटिक काउंसलिंग और भ्रूण की ऑटोप्सी की सुविधा भी शुरू कर दी है। अगर गर्भवती महिला की उम्र 35 से अधिक है, अथवा गर्भावस्था में डबल या क्वाड्रपल मार्कर अथवा नॉन इंवेसिव प्रिनेटल स्क्रीनिंग नामक जांचें पॉजिटिव आयी हों तो ये जांचें करानी चाहिए। यदि गर्भस्थ शिशु में अल्ट्रासाउंड के दौरान कोई विकृति पाई गयी है अथवा परिवार में कोई अन्य अनुवांशिक बीमारी है (जैसे कि थैलसीमिआ, हिमोफिलिआ, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी) अथवा परिवार में किसी बच्चे में जन्मजात विकृति पायी गयी है अथवा पति-पत्नी में से एक या दोनों किसी अनुवांशिक बीमारी से ग्रसित हैं या वाहक हैं, तो ये जांचें कराई जा सकती है एवं गर्भस्थ शिशु में बीमारी का पता लगाया जा सकता है। इन जांचों के माध्यम से परिवार में शारीरिक और मानसिक विकलांग बच्चे के जन्म को रोका जा सकता है। साथ ही, परिवार में आगे होने वाले बच्चों में इस प्रकार की बीमारी की पुनरावृति दर का भी पता लगया जा सकता है।