लखनऊ (ब्यूरो)। संजय गांधी पीजीआई में प्रदेश समेत देश के अन्य राज्यों से मरीज बेहतर ट्रीटमेंट की आस में आते हैं। पर डॉक्टर को दिखाने से लेकर दवा लेने तक में उनको जो जद्दोजहद करनी पड़ती है, वो उनका मर्ज और बढ़ा देती है। किसी तरह घंटों लाइन में लगकर जब दवा लेने का नंबर आता है, तो काउंटर पर पूरी दवाएं नहीं मिलती हैं। वहीं, डॉक्टर भी ब्रांडेड दवाएं लिख रहे हैं। जिसकी वजह से मरीजों को बाहर से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं और उनपर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है।

केस 1 - पीजीआई के यूरोलॉजी में मो। मुस्ताक अहमद पेशाब संबंधी दिक्कत होने पर दिखाने पहुंचे। डॉक्टर ने जो दवाएं लिखीं, उनमें से अधिकतर बाहर ही मिलीं। ब्रांडेड होने की वजह से उनको महंगी दवाएं खरीदनी पड़ीं।

केस 2 - प्रेम चंद दिल की समस्या होने पर कार्डियोलॉजी दिखाने पहुंचे। डॉक्टर ने जांच के बाद दवाएं लिखीं। सभी दवाएं ब्रांडेड थीं। एचआरएफ पहुंचे तो घंटों इंतजार के बाद भी दवा नहीं मिली।

केस 3- अनिल सिंह न्यूरो की समस्या होने पर दिखाने पहुंचे थे। डॉक्टर की लिखी दवाएं लेने जब वह एचआरएफ काउंटर पहुंचे तो घंटों के बाद नंबर आया, पर उनको पूरी दवाएं नहीं मिलीं। ऐसे में बाहर से दवा लेनी पड़ीं।

हर साल दवा पर करोड़ों खर्च

संजय गांधी पीजीआई में 2 हजार से अधिक बेड हैं। यहां रोजाना 4 हजार से अधिक मरीज आते हैं। मरीजों को सस्ती दरों पर दवा उपलब्ध कराने के लिए यहां पर हॉस्पिटल रिवाल्विंग फंड (एचआरएफ) की सुविधा भी है। निदेशक द्वारा डॉक्टरों को एचआरएफ में मिलने वाली दवाओं को ही लिखने के सख्त निर्देश दिए जा चुके हैं। संस्थान द्वारा दवाईयों पर करीब 40 करोड़ से अधिक का खर्च किया जाता है। इसके अलावा प्रदेश और केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत भी दवा और ट्रीटमेंट के मद बजट मिलता है।

सस्ती दवाईयों के लिए एचआरएफ

पीजीआई में मरीजों को दवाईयां देने के लिए एचआरएफ स्टोर की सुविधा है। जहां 60 फीसदी तक कम दरों पर दवाएं मिलती हैं। न्यू ओपीडी समेत अन्य वार्डों और इमरजेंसी में भी एचआरएफ के तहत सस्ती दरों पर दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। हालांकि, यहां पर आरसी के तहत ही दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, ताकि मरीजों के ऊपर महंगी दवाओं का बोझ न पड़े। इसके अलावा पीएम, सीएम और अन्य योजनाओं के तहत मिलने वाले कोष से भी दवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। हालांकि, इसके इतर डॉक्टर कोई दवा लिखते हैं, तो मरीजों को उसे बाहर से ही लेना पड़ता है।

लिख रहे ब्रांडेड दवाएं

नेशनल मेडिकल काउंसिल ने ब्रांडेड दवाएं लिखने पर रोक लगा दी है। पर इसके बावजूद डॉक्टर ब्रांडेड दवाएं लिख रहे हैं, जबकि खुद निदेशक केवल एचआरएफ में मिलने वाली दवाओं को ही लिखने का निर्देश दे चुके हैं। मरीजों को बाहर से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं। इसके पीछे बड़ी वजह इन दवाओं की ब्रिकी पर मिलने वाला कमीशन भी होता है। निजी दवा कंपनियां उनकी दवाएं लिखने पर कई सुविधाएं भी उपलब्ध कराती हैं।

घंटों लगना पड़ता है लाइन में

संस्थान में मरीजों के लिए जितना मुश्किल डॉक्टर को दिखाना होता है। उससे ज्यादा कठिन काम एचआरएफ काउंटर से दवा लेना है। क्योंकि यहां कई काउंटर से गुजरने के बाद आपका दवा लेने का नंबर आता है। सबसे पहले डॉक्टर का पर्चा लेकर काउंटर पर बिल जनरेट करवाना होता है। इसके बाद दूसरे पेमेंट काउंटर पर जाकर बिल पेमेंट करना पड़ता है। फिर दवा वितरण काउंटर पर जाकर पर्चा और बिल जमा करना होता है। इसके बाद ही मरीज को दवा मिल पाती है। वहीं, एचआरएफ काउंटर पर इतनी भीड़ होती है कि पर्चा बनवाने से लेकर दवा लेने तक में 2-3 घंटा आसानी से लग जाता है। इस दौरान कई बाद मरीजों और काउंटर पर तैनात कर्मचारियों में बहस तक हो जाती है, क्योंकि लंबे इंतजार के चलते उनका समय बर्बाद होता है। वहीं, कई बार सर्वर में दिक्कत आने से और देरी हो जाती है। ऐसे में पीजीआई में इलाज के लिए पूरा दिन लेकर आना पड़ता है।

नहीं मिलतीं पूरी दवाएं

पीजीआई में खासतौर पर कार्डियोलॉजी, यूरोलॉजी, न्यूरोलॉजी, न्यूरोसर्जरी आदि की दवाईयां नहीं मिलती हैं। इतना ही नहीं, हेपेटाइटिस-सी की भी दवाएं नहीं मिल रही हैं। तमाम रोक के बावजूद डॉक्टर ब्रांडेड दवाएं ही लिखते हैं, जिसकी वजह से संस्थान के बाहर बने निजी मेडिकल स्टोर्स पर मरीजों की भीड़ जमा रहती है। अधिकारियों के तमाम दावों के बावजूद मरीजों को पूरी दवाएं नहीं मिल रही हैं।

एचआरएफ में सभी दवाएं मिल रही हैं। अगर कोई दवा नहीं है तो उसे मंगवाया जाएगा। ब्रांडेड दवा की जगह जेनरिक नाम लिखने का आदेश दिया जा चुका है।

-प्रो। आरके धीमन, निदेशक पीजीआई