लखनऊ (ब्यूरो)। बात थोड़ी सख्त है, पर बच्चों के भविष्य के लिए बेहद जरूरी है। सोशल मीडिया के दौर में जिस तरह टीनएजर्स न केवल साइबर क्राइम कर रहे हैं, बल्कि खुद भी साइबर स्टॉकिंग में फंस रहे हैं। उन्हें सुरक्षित रखना उनके पैरेंट्स की जिम्मेदारी है। दैनिक जागरण आईनेक्स्ट ने अपने 'डार्क साइड' अभियान में हर पहलू को सामने रखा कि कैसे बच्चे सोशल मीडिया प्लेटफार्म के एडिक्ट बन रहे हैं। रविवार को इस प्रॉब्लम के सॉल्यूशन के लिए वेबिनार मंच के मंथन से पैरेटिंग का अमृत सामने आया है कि कई ऐप के जरिए न केवल बच्चों के सोशल मीडिया अकाउंट की निगरानी की जा सकती है, बल्कि उनके साथ क्वालिटी टाइम बिताना भी जरूरी है। बच्चों को पता होना चाहिए कि उनके करियर के लिए सोशल मीडिया जितना जरूरी है, उतना ही उन्हें सावधान भी रहना चाहिए।

इन ऐप से कर सकते हैं बच्चों की निगरानी

-फैमीसेफ

-वनमॉनिटर

इस प्रकार के कई ऐप गूगल पर उपलब्ध है। हालांकि, पैरेंट्स इनका इस्तेमाल करने से पहले इनका भली भांति अवलोकन व विश्लेषण करे लें और इसके बाद अपने रिस्क पर इसका यूज किया जा सकता है। ऐप का इस्तेमाल कैसे करना है, इसके लिए आप इनका वीडियो यूट्यूब पर देख सकते हैं।

ऑनलाइन क्लासेस ने बढ़ाई टेंशन

पैरेंट्स बचपन में ही बच्चों को मोबाइल थमा कर उनकी छोटी-छोटी जरूरतों से बचने की कोशिश करते हैं। रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी। जब ऑनलाइन क्लासेज के नाम पर उन्हें स्मार्टफोन थमा दिया गया हैं, जिससे बच्चे चिड़चिड़े हो रहे हैं। जबतक बच्चों के साथ हर दिन दो घंटे समय नहीं बीतते है, तब तक न तो अच्छी पैरेटिंग हो सकेगी और न ही हम अच्छे पैरेंट्स बन सकेंगे।

-विवेक शर्मा, पैरेंट

न्यूक्लियर फैमिली का खामियाजा

ज्वाइंट फैमिली के अभाव के चलते ऐसे हालत सामने आ रहे हैं। बड़ी व ज्वाइंट फैमिली होने पर बच्चे घर में बोर नहीं होते थे, क्योंकि घर में कई मेंबर्स रहते थे। अब एकल परिवार के चलते बच्चे घर में बोर होते हैं। वे बुक्स नहीं पढऩा चाहते। उन्हें मोबाइल की आसानी से लत लगती जा रही है। पैरेंट्स उन्हें टाइम देना नहीं चाहते। मोबाइल जरूरी है, लेकिन उसका मिस यूज न हो इसके लिए पैरेंट्स को निगरानी रखनी होगी।

-ममता श्रीवास्तव, पैरेंट

जितनी फोन से दूरी, उतना अच्छा गिफ्ट

बच्चों को मोबाइल एडिक्ट न बनने दें। पैरेंट्स रात 9 बजे के बाद बच्चों के साथ समय बिताएं और उन्हें सक्सेस स्टोरी सुनाएं। बच्चों को नसीहत देने से पहले पैरेंट्स को भी जरूरी न होने पर कुछ समय के लिए मोबाइल फोन से दूरी बनानी होगी। इसके अलावा जिला स्तर पर मोबाइल नशा मुक्ति अभियान को सक्रिय किया जाए। यह समस्या शहर ही नहीं गांव-गांव पहुंच रही है। बच्चों को चैलेंज दें कि अगर वे तीन दिन तक मोबाइल यूज नहीं करेंगे तो उन्हें गिफ्ट दिया जाएगा। यह प्रयोग पहले अपने घर, फिर रिश्तेदारी व आस-पास में करें। फर्क खुद नजर आ जाएगा।

-लोकेश त्रिपाठी, पैरेंट

बच्चों को खतरों के बारे में बताएं

बच्चों का बालमन इतना सरल होता है कि उसे जैसे चाहे वैसे ढाल सकते हैं। इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। खाना खिलाने या फिर किसी काम में बिजी होने के दौरान उन्हें हाथ में मोबाइल फोन पकड़ा देते हैं। उस समय तो हम अपने स्वार्थ के लिए ऐसा करते हैं, लेकिन वही बाद में उनकी आदत में शामिल हो जाता है। फिर हम बच्चों को गलत ठहराते हैं। बच्चों से पहले हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। उन्हें बताना जरूरी है कि मोबाइल या सोशल मीडिया का यूज कब, कितना और कहां जरूरी है। उसके अलावा यह कितना खतरनाक भी है।

-पुष्पा मिश्रा, पैरेंट

ऐप्स से रखें उनके फोन पर नजर

बच्चों की ग्रूमिंग जितनी अच्छी ज्वाइंट फैमिली में होती है उतनी एकल परिवार में नहीं हो सकती। मोबाइल फोन व सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स के चलते बच्चे मेंटल डिसऑर्डर का शिकार हो रहे हैं। सबसे ज्यादा समय बच्चे स्कूल व घर में बिताते हैं। बच्चों पर स्कूल व घर में ज्यादा निगरानी की जा सकती है। उन्हें गलत काम में मारने-पीटने की जगह उन्हें उनकी गलतियों का अहसास करना जरूरी होता है। 21वीं सदी के बच्चे बहुत स्मार्ट हैं। अब आपको भी स्मार्ट बनने की जरूरत है। कई ऐसे ऐप हैं, जिनके जरिए उनकी बिना जानकारी के पैरेंट्स बच्चों के मोबाइल फोन पर निगरानी रख सकते हैं, ताकि पता चल सके कि आपका बच्चा किस साइट पर कितना समय बीता रहा है।

-डॉ। देवाशीष शुक्ला, मनोचिकित्सक

बढ़ रहा है ऑनलाइन एजुकेशन सिस्टम

सोशल मीडिया के खतरे को पहले ही भाप लिया गया था, लेकिन कोरोना काल में बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन देना मजबूरी बन गई। सोशल मीडिया पर अक्सर वे बच्चे ज्यादा गलत कामों में फंसते हैं, जो आइसोलेटेड न्यूक्लियर फैमिली से होते हैं। ज्वाइंट फैमिली नगरीय समाज में फिट नहीं है। मजबूरी है लोगों कि वे एकल फैमिली में रह रहे हैं, जिसके चलते उनके बच्चे इस ट्रैप में आसानी से फंस जाते हैं। ऑनलाइन एजुकेशन सिस्टम बढ़ता जा रहा है। इसके लिए कई आयामों पर एक साथ काम करने की जरूरी है।

-डॉ। पवन मिश्रा, समाजशास्त्री, एलयू

बच्चों के फ्रेंड्स से भी मिलते रहें

सोशल मीडिया प्लेटफार्म का दायरा बहुत बड़ा है। बच्चों की प्रवृत्ति बनती जा रही है कि वे सोशल मीडिया फ्रेंड्ली रहें। बच्चों की यह कैटेगरी क्लास 6 से लेकर 12वीं तक होती है। यही समय होता है उनके बिगडऩे का। यह टाइम पैरेंट्स के लिए काफी चैलेंजिंग होना चाहिए। बेहद जरूरी है कि इस उम्र में न केवल बच्चों की मॉनीटरिंग की जाए बल्कि उन पर खासतौर पर बिना बताए निगरानी रखी जाए। बच्चों के फ्रेंड्स से पैरेंट्स को समय-समय पर मुलाकात करनी चाहिए। उन्हें घर पर बुलाना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि आपका बच्चा किस दिशा में आगे बढ़ रहा है।

-रनजीत राय, इंस्पेक्टर, साइबर क्राइम सेल

फोन की हिस्ट्री भी चेक करें

इंटरनेट व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अब एक जरूरत बन गए हैं। इससे बच्चों को दूर नहीं रखा जा सकता। उन्हें रोकने से अच्छा है कि उनकी मॉनीटरिंग करें। बच्चा इंटरनेट यूज कर रहा है तो वह कहां कितना टाइम दे रहा है, यह पता करना चाहिए। निगरानी के लिए बच्चों के फोन की हिस्ट्री चेक कर सकते हैं। इसके अलावा कई पेड ऐप हैं, जिनके जरिए यह पता लगा सकते हैं कि बच्चा किस साइट पर कितनी देर रुकता है और उसकी चैटिंग या गेमिंग में कौन-कौन लोग शामिल हैं।

-सौरभ मिश्रा, साइबर एक्सपर्ट, एसआई, साइबर क्राइम सेल

साइबर स्टॉकिंग का रहता है खतरा

सोशल मीडिया के खतरे से बच्चों को बचाने के लिए पैरेंट्स को कई तरह से काम करने की जरूरत है। वह फोन में कौन सा एप्लीकेशन डाउनलोड कर रहा है। इसके लिए सेटिंग के जरिए पैरेंटिंग कंट्रोल का यूज कर सकते हैं। कई बार बच्चे सोशल मीडिया पर साइबर स्टॉकिंग के शिकार हो जाते हैं। उससे बचने के लिए बच्चे व पैरेंट्स को अपने मोबाइल फोन के नोटिफिकेशन को बंद करके रखना चाहिए, ताकि उनकी जरूरी व निजी जानकारी लीक न हो सके।

-सुनील कुमार, साइबर एक्सपर्ट