30 साल बाद धुला 3 हजार रिश्वत का आरोप

- मथुरा जीआरपी के जवानों पर एंटी करप्शन कोर्ट में चल रहा था केस

- एक व्यक्ति को पकड़ने के बाद छोड़ने के लिए 3 हजार रुपए लेने का आरोप

- शासकीय अधिवक्ता हाईकोर्ट में करेंगे अपील

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sharma.saurabh@inext.co.in

Meerut : जीआरपी के एसओ और तीन कांस्टेबल को अपने को बेकसूर साबित करने में 30 साल गए। आरोप था कि उन्होंने एक व्यक्ति प्लेटफॉर्म से पकड़ा। जेब से रुपए निकाले, हवालात में बंद किया। उसके साथ मारपीट की। फिर छोड़ने के नाम पर रिश्वत मांगी। पहले एंटी करप्शन ने जांच में चार्ज लगाए। उसके बाद एंटी करप्शन कोर्ट में इन चार्जेस पर केस चला। अंत में साक्ष्य के अभाव में उन्हें बरी कर दिया।

घटना 1985 की है

1 जून 1985 आगरा निवासी पंकज चतुर्वेदी ने आरोप लगाया था कि वह कपड़े का व्यापारी है। कपड़ों पर कलेंडर कराकर मथुरा जंक्शन से रात को घर जाने के लिए ट्रेन का इंतजार कर रहा था। तभी दो कांस्टेबल आए और कहा कि एसओ अंगद सिंह ने बुलाया है। फिर उससे जेब रखे हुए 8300 रुपए निकाल लिए गए। फिर उसके साथ काफी पिटाई की गई। छोड़ने के लिए 3000 रुपए मांगे गए। पंकज चतुर्वेदी ने अपने बड़े भाई के नाम पत्र लिखा। थाने के मुंशी को दिया। मुंशी उसके घर गया और पर्ची देकर वापस आ गया। तीन हजार रुपए लेकर जीआरपी ने उसे छोड़ा।

की शिकायत

3 जून 1985 को पंकज के बड़े भाई पेशे से वकील मुनेंद्र नाथ डीआईजी आगरा को इस बारे में शिकायत की। उन्होंने इस शिकायत को एसपी जीआरपी को सौंप दी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। मुनेंद्र ने 21 जून 1985 को पुलिस उप महानिरीक्षक लखनऊ को जानकारी दी, जिसकी एंटी करप्शन सेल से जांच शुरू कर दी। एंटी करप्शन ने एसओ अंगद सिंह, सरकार सिंह, सुरेश चंद्र, नरेंद्र सिंह, देवेंद्र सिंह के खिलाफ जीआरपी मथुरा थाने में धारा 394, 342, 323, 218, 161 और एंटी करप्शन एक्ट 5(2) के मामला दर्ज कर लिया गया।

कोर्ट में दाखिल की चार्जशीट

इन सभी के खिलाफ मेरठ के एंटी करप्शन कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई। जहां पर सभी के बयान हुए। अभियुक्तों ने अपने पक्ष में कहा कि हमारी ओर से किसी तरह की रिश्वत की डिमांड नहीं की गई थी। बल्कि रेलवे एक्ट के तहत 118 में चालान काटा गया था। ऐसे में उन पर रिश्वत का आरोप गलत है।

नहीं साबित हो सका आरोप

2 फरवरी को अपर सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम पीयूष शर्मा ने निर्णय सुनाते हुए कहा कि जिस तरह के आरोप हैं कि उसे अभियोजन पक्ष साबित नहीं कर सका है। पुलिस के पास पहली लिखित शिकायत में न तो रिश्वत लेने का जिक्र है और न ही मारपीट का। उसके बाद मौखिक तौर पर मान भी लिया जाए तो दो तारीख को ही मेडिकल क्यों नहीं कराया गया। शिकायत के लिए एक दिन का और इंतजार क्यों किया गया? जबकि पंकज के भाई खुद एक वकील हैं। वहीं अभियोजन पक्ष की ओर से जितने भी गवाह पेश किए गए उनमें कई तरह के विरोधाभास हैं। अभियुक्त अंगद सिंह, सरदार सिंह, सुरेश चंद्र और देवेश सिंह पर लगाए गए आरोप धारा 394, 342, 323, 218, 161 और एंटी करप्शन एक्ट 5(2) से मुक्त किया जाता है।

मैं इस मामले को लेकर हाईकोर्ट में अपील करूंगा, क्योंकि पंकज और उसके परिवार पर गुजरी है, उसे सिर्फ ये कहकर खारिज कर देना कि सिर्फ मौखिक है, सही नहीं है।

- देवकी नंदन शर्मा, शासकीय अधिवक्ता

एक की पहले ही हो गई थी मौत

इस केस के बीच में ही अभियुक्त ओंकार सिंह की मृत्यु हो जाने की वजह से केस को खत्म कर दिया गया था। ओंकार सिंह की मौत 28 अक्टूबर 2009 को हुई थी। वहीं अभियुक्त नरेंद्र सिंह के गायब हो जाने के कारण उसके केस को 2 मार्च 2006 को बाकी केसों से अलग कर दिया गया था।