Meerut: सुबह के सिर्फ 9 ही बजे थे, रोजमर्रा की जिंदगी अपने सफर पर निकलने ही वाली थी कि जंगल के उस बाशिंदे की खबर जंगल की आग की तेजी से ही पूरे शहर में फैल गई। तेंदुआ आयातेंदुआ आया सुनकर मैं सवा नौ बजे तक मौके पर जा पहुंचा। यूं तो सूरज की तपिश भोर का परदा अभी पूरी तरह उठा भी नहीं सकी थी, लेकिन सेना के इस अस्पताल में लोग खौफ के पसीनों से तर-बतर हो चुके थे। किसी की सांसें उखड़ी थीं, किसी की आंखें बोझिल, हैरान-परेशान। वे लोग यहां आए थे दर्द की दवा लेने, लेकिन सामने मौत का अहसास था। सामने जब जान पर बनी हो, तो अस्पताल में भी कैसी दवा और कौन-सी राहत।

मानो, आतंकियों से निपटना हो

अस्पताल में हर ओर खौफ नजर आ रहा था। महिला वार्ड से लेकर बच्चा वार्ड तक सभी जगह के खिड़की-दरवाजे सील कर दिए गए थे। तेंदुआ अस्पताल के सी ब्लॉक में था, लेकिन पूरे अस्पताल में मरीज कमरों में दुबकते नजर आए। बाहर मुस्तैद सेना और पुलिस के जवान थे। उनके साथ दौड़ते-भागते अस्पताल प्रशासन के लोग और फोरेस्ट टीम। ऐसा लग रहा था, जैसे, यहां किसी आतंकी हमले से निपटने की तैयारी हो। शहर में दो साल पहले तेंदुए की आमद किसी आतंकवादी से कम भी तो नहीं थी। मौके पर मिले कई लोगों को आज भी वो खौफनाक तीन दिन किसी पुरानी फिल्म जैसे याद थे।

दूर-दूर तक सन्नाटा

अस्पताल से बाहर की सड़कें भी अचानक शाम सी खामोश हो गईं। कुछ कदम खुद ही ठिठक गए और कइयों को सेना ने थाम दिया। जो अस्पताल पहुंचे भी उनमें से कई तो बिना दवाई लिए गेट से ही लौट गए। जान बचे, तो जहान बचे।

अति उत्साह में जुटी भीड़

अपना मेरठ है। क्रांति की इस धरती में दिलवाले भी कम नहीं। कई ऐसे युवा थे, जो अति उत्साह में तेंदुए को देखने ही यहां आ पहुंचे थे। अलबत्ता, पूरे शहर में जो सुन रहा था, वह अपने चाहने वालों को जरूर सावधान कर रहा था। देर रात तक यह सिलसिला चलता रहा। काश, आज तो राहत मिले।