हमारे पूवर्जो ने हमें जो कुछ भी दिया है इसके लिए हम उनके ऋणी हैं। हमारा वर्तमान उनकी थाती है। उसे संभालकर रखना हमारी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी। हम उन्हें याद कर के ही अपनी श्रद्धा समर्पित कर सकते हैं। हमारा पितर हमारा शहर के अंर्तगत अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा अर्पित करने में क्रम में आज हम शहर के सबसे पुराने चर्च की चर्चा करते हैं।

बनारस की खासियतों में शुमार है कैंटोन्मेंट स्थित चर्च ऑफ इंग्लैंड (एंग्लीकन चर्च)। जेएचवी मॉल के सामने तकरीबन साढ़े ग्यारह एकड़ के कैंपस में 1812 में स्थापित यह चर्च का स्थापत्य अपने पुराने दिनों के वैभव की कहानी कह रहा है। कभी जितना भव्य यह बाहर से दिखता था उतना ही भव्य यह अंदर से भी था। पर समय के चक्र ने इसकी दीवारों को चप्पड़ छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। चर्च के दरवाजों, खिड़कियों पर की गयी बेहतरीन लकड़ी की कारीगरी अंग्रेजी कला के बेजोड़ नमूने हैं। खिड़कियों और रोशनदानों में लगे रंगीन शीशों की कटिंग इनकी खासियत का बखान करते हैं। चर्च के छतों के अंदर की दीवारों पर की गई कारीगरी में इसे बनाने की मेहनत और सोच दिखायी देती है।

महारानी एलिजाबेथ ने की थी प्रार्थना

इस चर्च की बुनियाद 1810 में फादर डेनियल कैरी ने रखी थी। दो साल में यह चर्च अपने भव्य रूप में बनकर तैयार हुआ। इस चर्च में सिर्फ गोरे लोगों का ही प्रवेश था। वे ही इसमें प्रार्थना करते थे। बाकी किसी भी व्यक्ति के लिए इस चर्च में प्रवेश वर्जित था। इस चर्च को गैरिसन चर्च या आर्मी चर्च भी कहा जाता है। 1960 में इस चर्च में महारानी एलिजाबेथ ने प्रार्थना की थी। स्कॉटलैंड के राजकुमार जॉन ड्यूक ने भी इस पवित्र स्थान पर प्रभू की आराधना की थी। चर्च के खास होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चर्च के देखरेख की जिम्मेदारी इंग्लैंड में सर आर्क बिशप की होती थी। जिनका दर्जा महारानी के बराबर होता था।

1970 में नॉर्थ इंडियन क्रिश्चियन चर्च में शामिल

1970 में इस चर्च को नॉर्थ इंडियन क्रिश्चियन चर्च में शामिल किया गया। फिलहाल इस चर्च की स्थिति बहुत खराब है। यहां कोई भी आता जाता नहीं है। हेरिटेज कंजरवेशन के लिए इस चर्च का चयन इंटैक वालों ने किया है। उनका प्रयास है कि चर्च के पुराने वैभव को उसके मूल में संरक्षित किया जाए। क्योंकि यह सिर्फ एक चर्च नहीं, वो बुजुर्ग है जिसके सीने में शहर का तमाम इतिहास जिंदा है।