खुद को जोखिम में फँसा लिया ‘आप’ ने
‘आप’ की पेचदार निर्णय प्रक्रिया जनता को पसंद आएगी या नहीं, लेकिन पार्टी जोखिम की राह पर बढ़ रही है. पार्टी को दुबारा चुनाव में ही जाना था, तो इस सब की ज़रूरत नहीं थी. इस प्रक्रिया का हर नतीजा जोखिम भरा है. पार्टी का कहना है कि हमने किसी से समर्थन नहीं माँगा था, पर उसने सरकार बनाने के लिए ही तो चुनाव लड़ा था.‘आप’ अब तलवार की धार पर है. सत्ता की राजनीति के भंवर ने उसे घेर लिया है. इस समय वह जनाकांक्षाओं के ज्वार पर है. यदि पार्टी इसे तार्किक परिणति तक पहुँचाने में कामयाब हुई तो यह बात देश के लोकतांत्रिक इतिहास में युगांतरकारी होगी.एक सवाल यह है कि इस जनमत संग्रह की पद्धति क्या होगी? पार्टी का कहना है कि 70 विधानसभा क्षेत्रों में जनसभाएं की जाएंगी, 25 लाख पर्चे छापे जाएंगे. फेसबुक, ट्विटर और एसएमएस की मदद भी ली जाएगी.
'आप' को अब तक सरकार बनाने के लिए लाखों एसएमएस मिल चुके हैं. हालांकि सोशल मीडिया पर ‘आप’ के समर्थकों के मुक़ाबले आलोचकों की संख्या भी कम नहीं है. लोकपाल बिल पर अन्ना के साथ टकराव मोल लेकर पार्टी ने बदमज़गी पहले ही पैदा कर ली है.सरकार बनाने के जोखिम
‘आप’ की सरकार बनी तो सबसे पहले उसे उन कामों को निपटाना होगा, जिन्हें कांग्रेस ने प्रशासनिक मामला कहा है. दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का समर्थन बहुत ज़ोरदार तरीक़े से न कांग्रेस के भीतर रहा है और न भाजपा के भीतर. आज की व्यवस्था में दिल्ली सरकार के पास ज़िम्मेदारियाँ कम हैं और साधन ज़्यादा.लाल बत्ती संस्कृति को ख़त्म करने, बिजली कंपनियों के ऑडिट, भागीदारी कार्यक्रम की तर्ज पर मोहल्ला सभाओं को अधिकार देने, नए स्कूल और अस्पताल खोलने और पानी की उपलब्धता बढ़ाने के काम मुश्किल नहीं हैं. अनधिकृत कॉलोनियों, गाँवों की व्यवस्था सुधारने, न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने जैसे कई कामों में केंद्र की मदद भी चाहिए.
इसे लोकतांत्रिक अतिवाद कहें या आत्मविश्वास की कमी? भीड़तंत्र के प्रवेश का ख़तरा भी है. ऐसे मामलों में जहां संवैधानिक तथा प्रशासनिक मसलों से जुड़ी विशेषज्ञता की ज़रूरत है, वहां भीड़ की राय का मतलब क्या है? लोक-लुभावन राजनीति का ही क्या यह नया रूप नहीं?"‘आप’ एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी. संभव है उसका एजेंडा व्यापक धरातल पर विकसित हो। उस स्थिति में उसे केवल भ्रष्टाचार के मसले के आगे भी सोचना होगा. देश के लोकतांत्रिक आंदोलन में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मसलों का इतिहास है. उसे इन सब बातों के बारे में कोई कार्यक्रम बनाना होगा."जन-प्रतिनिधित्व का मतलब होता है फ़ैसले करने का अधिकार किसी दूसरे को सौंपना. राजनीति में एक छोर उन प्रवृत्तियों से भरा है जो एक बार चुनाव जीत जाने के बाद पाँच साल तक जनता को पूछती नहीं. दूसरा छोर यह है जिसमें जनता से पूछे बगैर पार्टी फ़ैसले करना नहीं चाहती.राजनीति के नए यथार्थ‘आप’ एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी. संभव है उसका एजेंडा व्यापक धरातल पर विकसित हो. उस स्थिति में उसे भ्रष्टाचार के मसले के आगे भी सोचना होगा. देश के लोकतांत्रिक आंदोलन में सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मसलों का इतिहास है. उसे इन सब बातों के बारे में कोई कार्यक्रम बनाना होगा.
पार्टी जिन राजनीतिक अवधारणाओं पर चल रही है, उनमें गठबंधन की राजनीति की जगह नहीं है. पर क्या गठबंधन-राजनीति की अनदेखी की जा सकती है? गठबंधन करने के लिए उसे परंपरागत राजनीति से हाथ मिलाना होगा, जो उसके पवित्रतावादी विचार के प्रतिकूल है. उसने अपनी सीमाएं तय नहीं की हैं. यदि उसे विरोधी दल या प्रेशर ग्रुप के रूप में ही काम करना है, तो फिर जनता की उम्मीदें जगाने की ज़रूरत क्या थी? सत्ता में आना है तो गठबंधन के बारे में भी सोचना होगा.
जनवरी 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने उस फ़ैसले को अवैध घोषित कर दिया, पर विधान सभा की वापसी नहीं की. उसकी ज़रूरत भी नहीं थी, क्योंकि अक्तूबर 2005 में चुनाव के बाद वहाँ साफ बहुमत के साथ एनडीए की सरकार बन चुकी थी. एनडीए की उस जीत के पीछे वोटर की वह हमदर्दी भी थी जो उसे सरकार बनाने से वंचित करने के कारण पैदा हुई थी.दिल्ली में दुबारा चुनाव हुए तो क्या वैसा ही होगा जैसा बिहार में हुआ था? पर यहाँ दो पार्टियों को बहुमत की उम्मीद है. ‘आप’ को लगता है कि बार-बार जनता के बीच जाना उसे फ़ायदा पहुंचाएगा. भाजपा को लगता है कि जनता इस ‘नौटंकी’ को पसंद नहीं करेगी. संभावनाएं अभी अधर में हैं.