एक ख़ूनी घटना, जिसे भुला दिया गया
लेकिन 6 दिसंबर, 1977 को ही एक मज़दूर आंदोलन के दौरान हुई ख़ूनी घटना को यह औद्योगिक नगरी भूल चुकी है, जिसमें 13 लोगों की जान चली गई थी.5 दिसंबर की शाम कानपुर के पुलिस लाइंस में पुलिस वालों की अगले दिन के लिए ड्यूटी लगाई जा रही थी. थानों को निर्देश दिए जा रहे थे कि वे 6 दिसंबर के दिन चौकन्ना रहें, पर किसी को कानपुर के जुही इलाके में स्थित और अब वीरान हो चुके स्वदेशी कॉटन मिल की परवाह नहीं है.मजदूरों की मौतसत्तर के दशक में स्वदेशी कॉटन मिल में इक्कीस से बाईस हज़ार कर्मचारी थे. इस मिल में 24 घंटे काम होता था, पर मिल की वित्तीय हालत ठीक नहीं थी. वेतन समय पर नहीं मिल रहा था.
मिल के पूर्व कर्मचारी शिव कुमार ने बीबीसी को बताया, ''एक समय ऐसा आया कि हमारा नौ महीने का वेतन बकाया हो गया.''
कन्हैया लाल के मुताबिक, ''80 के दशक तक स्मारक पार्क में हर 6 दिसंबर को बड़ी सभाएं हुआ करती थीं जिसमें हज़ारों लोग जमा होते थे. अब भी 6 दिसंबर को लोग आते हैं पर 10 या 15 से ज़्यादा नहीं.''कानपुर एक समय में मिलों की नगरी हुआ करता था पर 80 के दशक से कानपुर की बड़ी मिलों के बंद होने का दौर शुरू हो गया.'भूली हुई घटना'कानपुर में जन्मे और बड़े हुए सीएम लूथर 1977 में कॉलेज में पढ़ते थे. उन्हें स्वदेशी कॉटन मिल की घटना अच्छी तरह याद है.1989 से कानपुर के एक अंग्रेजी दैनिक में काम कर रहे लूथर कहते हैं, ''कानपुर श्रमिक आंदोलनों का बड़ा केंद्र हुआ करता था पर स्वदेशी मिल का आंदोलन कानपुर का आखिरी उग्र श्रमिक आंदोलन था.''पर आज की तारीख़ में कानपुर में 6 दिसंबर का जिक्र करने पर अमूमन लोग, ख़ासकर युवा, मस्जिद विध्वंस और उसके बाद फैली सांप्रदायिक हिंसा को ही याद करते हैं. 6 दिसंबर 1977 की घटना के बारे में पूछे जाने पर कानपुर के एक प्रमुख कॉलेज के राजनीतिक शास्त्र के एक युवा प्रोफेसर पूछते हैं, ''क्या वाकई एक ऐसी घटना हुई थी."
लेकिन कानपुर में ही जन्मे प्रोफेसर को 6 दिसंबर 1992 की बातें अच्छी तरह से याद हैं.
कानपुर के इतिहास पर कई किताबें लिखने वाले मनोज कपूर कहते हैं, ''1977 की घटना को लोग इसलिए भूल चुके हैं क्योंकि कानपुर की बड़ी मिलों के बंद होने के साथ ही शहर के मज़दूरों की जो ताक़त थी वो ख़त्म हो चुकी है. कानपुर का जो लेबर मूवमेंट था वह छिन्न -भिन्न हो चुका था और सिर्फ कानपुर ही क्यों पूरे देश में लेबर मूवमेंट ख़त्म हो रहा था. एक समय था जब दत्ता सामंत जैसे लोग मुम्बई को हिला देते थे. वह पीढ़ी ख़त्म हो रही थी या ख़त्म हो चुकी थी.''कपूर आगे कहते हैं, ''6 दिसंबर, 1992 की बात लोगों को इसलिए याद है क्योंकि राजनीतिक पार्टियां और मीडिया दोनों ही इस मुद्दे को ज्वलंत रख रहे हैं. दूसरा कारण यह है कि इस मामले से धार्मिक भावनाएं जुड़ी हैं.'उन्हें इस बात की उम्मीद कम ही दिखती है कि आने वाले सालों में लोग 6 दिसंबर, 1992 के दिन को भुला पाएंगे.