Patna: पीयूष मिश्रा ये नाम एक ऐसे मल्टीफैसेट इंसान का है जिससे हर थिएटर लवर और म्यूजिक फैन रूबरू रखता है. 'अरे रुक जा रे बंदे' से शुरू हुआ यह लिरिकल सफर 'हुस्ना' तक जारी है. पर तब भी ऑडिएंसेज की फरमाइश रुकने का नाम नहीं लेती.


पटना लिटरेचर फेस्टिवल में पीयूष को जब अपने इंटरैक्टिव सेशन से फुर्सत मिली, तो उन्होंने म्यूजिक और लिटरेचर के कनेक्शन पर अपनी बात रखी, साथ ही अपनी जिंदगी का 'टोटल' भी जाहिर किया।- अगर कभी राइटिंग और एक्टिंग के बीच किसी एक को चुनना पड़ा, तो किसे चुनेंगे?डेफिनेटली एक्टिंग। क्योंकि जब मैं कुछ नहीं कर रहा होता, तो भी एक्टिंग कर रहा होता। ये मेरे लिए ऐसा इनबिल्ट ट्रेट हो चुका है, जिसे मैं अब चाहकर भी छोड़ नहीं सकता। जबकि राइटिंग और वो भी ऐसे शब्द, जो खुद को पसंद आएं, उनके लिए काफी एफर्ट डालना पड़ता है। वैसे अगर क्रिएटिव आर्ट को छोडऩे की बात कहिएगा, तो जब चाहूंगा छोड़ दूंगा, क्योंकि मेरा सैटिस्फैक्शन लोगों के बीच मिलने वाली रिकग्निशन से कहीं बड़ा है। - आपके हिसाब से इंडियन ऑडिएंस म्यूजिकल्स को एक्सेप्ट क्यों नहीं कर पाती?


अरे यार, बस एक एलिमेंट के हिट होने की देर है। जिस दिन एक म्यूजिकल ऑडिएंस के बीच पॉपुलर हो गई, उस दिन के बाद प्रोड्यूसर्स म्यूजिकल्स की लाइन लगा देंगे। जैसे 'लगान' और 'गदर' की सक्सेस के पहले तक किसी को भी प्री-इंडिपेंडेंस वाला इंडिया याद नहीं था, पर सक्सेस मिलते ही सबने 'भगत सिंह' की लाइन लगा दी। वैसे ही इस जॉनर में भी पॉपुलैरिटी एलिमेंट ही मिसिंग है। - लिटरेचर और म्यूजिक आपके हिसाब से कितनी रिलेटेड है?मेरी राय मानोगे, तो म्यूजिक हर किसी को पसंद आता है। एक सैड आदमी भी म्यूजिक से ताल्लुक रखता है। वो चाहे किसी मूड या मिजाज में हो, म्यूजिक जरूर सुनता है। जबकि लिटरेचर के साथ ऐसी बात नहीं है। हर कोई लिटरेचर नहीं पढ़ सकता है। मेरी ही बात करो तो मैं खुद भी हर किस्म, हर वैरायटी का म्यूजिक सुन सकता हूं, पर जरूरी नहीं कि नजर के सामने से गुजरने वाली हर लाइन पढूं ही।- गुलाल या वासेपुर, दिल के ज्यादा करीब कौन है और क्यूं?ये फर्क करना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि कहीं आरंभ है, तो कहीं बगल में चांद रखने की बात। सब तो मेरी ही कलम से निकला है। पर, आज की ऑडिएंस तो हमें यही बताती है कि 'हुस्ना' इन सब पर भारी है। - अगर आपको अपनी जिंदगी का टोटल डिस्क्राइब करना हो, तो

कहां थे और कहां आ गए। ये इवॉल्यूशन ही मेरी जिंदगी का टोटल है। पर, हां कभी-कभी इस बात का अफसोस जरूर होता है कि जो सक्सेस मुझे 47 साल की उम्र में मिली, वो अगर 25-30 की एज में मिली होती, तो उसे ज्यादा इंज्वॉय कर पाता। और शायद अल्कोहलिज्म की अंधेरे में भी नहीं भटका होता, जिसे मैंने काफी बाद में रियलाइज किया कि ये चीज सबकुछ खत्म कर देती है। जब गुलजार साहब ने कहा दिल पे मत ले यार'कहीं पे सड़कों पे है बिस्तरकहीं पे एसी में बंद मिनिस्टरकहीं पे नींद, कहीं पे शोरकहीं पे हाय, कहीं पे बायजमाना क्या से क्या हुआ'यह गीत पीयूष ने मनोज बाजपेयी की फिल्म 'दिल पे मत ले यार' के लिए लिखी, पर अफसोस प्रोड्यूसर को पसंद नहीं आई। दुबारा संवारकर दिया, फिर उन्हें मजा नहीं आया। पीयूष की इस टीस पर गुलजार साहब ने चुटकी लेते हुए कहा, दिल पे मत ले यार"बोतल के दो पल हैं टोटलरात के नशे में चांद थामे बोतलजिंदगी का टोटल है बोतल और लोकलजिंदगी का पहिया साला घिस रहा यहां है"sanjeet.narayan@inext.co.in

Posted By: Inextlive