उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में बुधवार की शाम दो चचेरी बहनें शौच के लिए ही घर के पास के खेत में गई थीं. लेकिन उसके बाद वो कभी नहीं लौटीं. सामूहिक बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर दी गई.


यह घटना एक बार फिर यह बताती है कि भारत में शौचालय किस तरह महिलाओं के सुरक्षा और सम्मान से जुड़ा है. भारत में, खासकर गांवों में, हर घर में अगर आज भी शौचालय नहीं हैं तो इसकी एक नहीं कई वजहें हैं. जानकार बताते हैं कि ग़रीबी और भूमिहीनता इसकी दो बड़ी वजहें हैं.साथ ही यह भी देखा जा रहा है कि शौचालय निर्माण के लिए चलाई जा रही सरकारी योजनाएं पूरी ईमानदारी से जमीन पर नहीं उतर पा रही हैं. दूसरी ओर गांवों में परिवारों के लिए शौचालय बनाना अब भी प्राथमिकता में शामिल नहीं हो पाया है.
लेकिन इस सबके बीच शौचालय की कमी से होने वाली परेशानियों और शर्मिंदगी के ख़िलाफ़ देश के अलग-अलग हिस्सों में महिलाएं घर के अंदर ही आवाज़ उठा रही हैं और उनके साहस से न सिर्फ उनकी ज़िंदगी बेहतर हो रही है बल्कि समाज में दूसरे लोगों को भी सीख मिल रही है.शौचालय नहीं बना तो मांगा तलाकउत्तर प्रदेश के कुशीनगर ज़िले के भैंसाहा गांव में प्रियंका राय की शादी 2012 के अप्रैल में हुई थी. ससुराल में शौचालय नहीं था. ऐसे में ससुराल पहुंचने के पांच-छह दिन बाद ही उन्होंने अपने पति को शौचालय बनाने को कहा.


तब पति ने अपनी बेरोज़गारी का हवाला देते हुए इनकार कर दिया. प्रियंका बताती हैं कि उन्होंने एक महीने तक इंतज़ार किया लेकिन जब शौचालय बनना शुरू नहीं हुआ तो झगड़कर मायके चली आईं.वह बताती हैं कि उनके कदम से गांव में हल्ला मच गया और फिर मीडिया के माध्यम से बात फैलते हुए सुलभ तक पहुंची. इसके बाद सुलभ की ओर से उनके ससुराल में शौचालय बना.हालांकि प्रियंका बताती हैं कि उनके मायके में भी शौचालय नहीं था. परेशानी वहां भी थी. घर में पैसे की कमी थी, सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाया तो शौचालय नहीं बना. लेकिन ससुराल में दुल्हन के लिए खेत में शैचालय जाना कई तरह की परेशानियां पैदा करता था.डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक, संस्थापक, सुलभ

"शौचालय निर्माण के लिए पंचायतों को पैसा मिल रहा है. लेकिन यह नीति तय नहीं हुई है कि इसे बनवाएगा कौन यानी इस काम को ज़मीन पर उतारने के लिए लोगों को प्रेरित कौन करेगा. इसके लिए हर प्रखंड या तालुका में दस लोगों को प्रशिक्षित किए जाने की ज़रूरत है. ये प्रशिक्षित प्रेरक शौचालय निर्माण के हर कदम में लोगों को मदद करेंगे. जैसे कि उन्हें सरकारी योजना की जानकारी देंगे, उन तक पहुंच सुनिश्चित करेंगे आदि. साथ ही यह भी सच है कि शौचालय निर्माण के लिए मिलने वाली राशि भी पर्याप्त नहीं है और इसको हासिल करने का तरीका गड़बड़ है. इस दिशा में भी सरकार को पहल करनी चाहिए. साथ ही सरकार को शौचालय निर्माण के लिए बैंकों से क़र्ज़ की सुविधा भी उपलब्ध करानी चाहिए. भूमिहीन लोगों के लिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक शौचालय बनाने की ज़रूरत है".-डॉक्टर बिंदेश्वर पाठक, संस्थापक, सुलभदिन में शौचालय जाते वक्त लड़के फ़ब्तियां भी कसते थे. ऐसे में पार्वती ने परेशान होकर ससुराल छोड़ दिया. इसके बाद जो कुछ हुआ उसका ज़िक्र ऊपर है.फिलहाल पार्वती का वैवाहिक जीवन पटरी पर आ गया है. लेकिन अब वह एक ब्यूटीशियन के तौर पर काम कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हैं. इतना ही नहीं वह अधूरी रह गई पढ़ाई पूरी करते हुए आगे और पढ़ना भी चाहती हैं.साथ ही वह यह भी महसूस करती हैं कि हर लड़की में कोई-न-कोई हुनर होना चाहिए जिससे कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो सके.विद्या बालन के साथ मिला मौका
विद्या बालन शौचालय संबंधी एक जागरूकता अभियान के विज्ञापन में एक डाकघर में एक महिला का परिचय देती हुई बताती है कि देखिए यह हैं प्रियंका भारती, जिन्होंने शौचालय नहीं होने पर ससुराल छोड़ दिया था.वहीं प्रियंका अपने बारे में बताती हैं कि मायके में कम-से-कम कच्चा शौचालय था लेकिन ससुराल में वह भी नहीं था. साल 2007 में शादी के बाद 2013 में वह गौने के बाद ससुराल पहुंचीं थीं.ऐसे में रोज़-रोज़ की शर्मिंदगी से बचने के लिए उन्होंने पहले दिन से ही पति से लेकर घर के हर बड़े-बुज़ुर्ग से शौचालय बनाने की बात कही. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो चार दिन बाद ही मायके वालों के साथ लौट गईं.फिर गांव में बात फैली और मीडिया में बात आई. शुरूआत में मायके वालों ने भी उनके फैसले पर नाराज़गी दिखाई. आज प्रियंका अपने उस हौसले के कारण ही अपने पैरों पर खड़ी हैं.साथ ही वह बीए भी कर रही हैं. ज्ञान को वह परिवार की सुरक्षा और सम्मान के लिए ज़रूरी मानती हैं.मोदी सरकार से पक्के शौचालय की आसउत्तर प्रदेश के बहराइच ज़िले के भवानीपुर गांव की रहने वाली मनोरानी यादव ने गांव में सामुदायिक शौचालय बनाने के लिए ज़मीन दान में दी है.
मामला कुछ यूं था कि मंत्री के नेतृत्व में जब अधिकारी गांव में सामुदायिक शौचालय के लिए ज़मीन तलााने आए तो कोई ग्रामीण जमीन देने को तैयार नहीं हुआ, गांव में सरकारी ज़मीन थी नहीं.ऐसे में अधिकारी गांव से शौचालय निर्माण की योजना वापस ले जाना चाहते थे. यह बात मनोरानी को पता चली तो उन्होंने अपनी ज़मीन देने का फ़ैसला किया. उनके द्वारा दान की गई लगभग चौदह सौ वर्गफीट ज़मीन पर अभी छह सामुदायिक शौचालय बने हैं.लगभग सौ घर वाले भवानीपुर में बनने वाले ये पहले शौचालय हैं. लेकिन ये प्लाईवुड के बने अस्थायी शौचालय हैं. मोदी सरकार से मनोरानी को आशा है कि वह इन्हें पक्का करा देगी.ज़मीन के लिए लड़ाई होती है, मुकदमे होते हैं, ऐसे में उन्होंने ज़मीन क्या सोच कर दान दी? इस सवाल के जवाब में वे कहती हैं कि उनके पास न तो ज्ञान है, न ही दौलत जिसके सहारे वह समाज-सेवा कर सकें. ऐसे में उन्हें लगा कि वो शौचालय बनाने के लिए जमीन दान कर ही ही ऐसा कर सकती हैं.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari