भारत-पाकिस्तान के समधियाना संबंध
दिल नहीं मान रहा लेकिन न्योता मिलने पर ख़ुद नहीं जाना तो किसी भाई-भतीजे या मुंशी को ज़रूर भिजवाना है. ताकि बात भी रह जाए और लाठी भी न टूटे. ऐसे ही दो समधी भारत और पाकिस्तान भी हैं.क्या ज़माना था कि नेहरू जी आराम से लियाकत-नेहरू पैक्ट और सिंध समझौते वगैरह के लिए या या कभी-कभार यूरोप आते-जाते रिफ़्यूलिंग के बहाने कराची में ठहर जाते और प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान और सुहरावर्दी वगैरह भी अक्सर कराची से ढाका जाते-जाते पालम या कोलकाता में ज़रूर चाय पीने रुक जाते.किसी को नाक-वाक का कोई मसला नहीं था क्योंकि सबको सबकी नाकों का साइज़ मालूम था.
लेकिन 1965 के युद्ध के बाद स्थिति बदल गई. शास्त्री-अयूब ख़ान बातचीत कराची या दिल्ली के बजाय ताशकंद के अजनबी माहौल में हुई. भुट्टो को मजबूरी में शिमला जाना पड़ा. ज़िया उल हक को जनरल सुंदरजी की ब्रासटेक्स फौजी मश्कों से पैदा होने वाली गर्मी दूर करने के लिए जयपुर में बिन बुलाए क्रिकेट मैच देखना पड़ा और फिर अजमेरी पिया के दरबार में फूलों की चादर भी चढ़ाई.करगिल और बंबई का रूट
राजीव गांधी सार्क सम्मलेन के बहाने ही इस्लामाबाद आए, मगर आए तो. और वाजपेयी जी का भी बड़प्पन है कि उन्होंने पहले श्रीनगर में एक तकरीर में मुस्कराते हुए कहा एक बार मिल तो लें और फिर बस में बैठकर लाहौर आ गए. उसके बाद कोई नहीं आया क्योंकि बीच में करगिल और बंबई का रूट पड़ गया था.
लेकिन मियां साहब ज़रा सोच-समझकर, कहीं मोदी ने हां कर दी तो? सच्ची बात यह है कि भारत-पाकिस्तान मामले में कोई भी भविष्यवाणी नहीं हो सकती क्योंकि जहां कोई बिन-बुलाए चला जाए और कभी कोई सौ दफ़ा बुलाने पर भी न आए, वहां किसी भी आंकड़ेबाज़ी का जोखिम उठाना सही नहीं.पाकिस्तान की तरफ़ से कोई न कोई आएगा ज़रूर. आख़िर समधियाने का मामला है वर्ना दुनिया क्या-क्या न कहेगी.