गर्मी की छुट्टियाँ हैं और दुनिया भर के लोग घूमने निकल पड़े हैं। गर्मियों में पहाड़ों पर जाना और नाना-नानी के घर जाना दो ऐसे नियम हैं जिसे हर भारतीय मानते हैं। और अगर नानी पहाड़ों में कहीं रहती हों तो गर्मी में उनसे मिलने जाने का अपना ही सुख है। कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हम-आप ही की तरह अपनी नानी से मिलने विदेश गए हैं।

अच्छा लगता है जब कोई बड़ी शख़्सियत कुछ अपने ही जैसा सोचते और करते हैं। फिर नानी से मिलने का मन तो सभी का करता है !

2006 की गर्मियों में जब हम पहली बार इटली में गए थे तो हमने सोनिया गांधी के जन्मस्थान लुज़ीआना जाने की ठान रखी थी।

मैं शुरू से ही सोनिया गांधी की बहुत इज़्ज़त करती हूं। और हमेशा से ही इस जगह के बारे में भी पढ़ा करती थी।

नानी से राहुल की मुलाक़ात कहाँ होगी ये स्पष्ट नहीं, मगर उनका ननिहाल तो लुज़ीयाना ही है।

 

 उस समय हमारी पहचान लुचानो ज़ैकराइअ नाम के एक फ़िल्म निर्माता से थी। वो मरोस्तिका नाम के एक छोटे से शहर पर एक फ़िल्म बनाना चाहता था।

मैं उनके साथ मरोस्तिका इसी उम्मीद में गई थी कि उससे सटा हुआ छोटा शहर लुज़ीआना भी है।

बस्सानो देल ग्राप्पा नामक शहर से हम गाड़ी में रवाना हुए और पहाड़ों, पर्वतों से होते हुए, लगभग दो घंटे में लुज़ीआना पहुँच गए।

अलतो पियानो के सात बड़े शहरों में से एक, यह शहर पहले विश्व युद्ध में बहुत हानि झेल चुका था।

यहाँ पर रहने वाले कई लोग आपको बताएंगे कि किस तरह उनके घर के बड़े-बूढ़े उस दौरान किसी और शहर में बसने चले गए थे।

जंगलों और स्कीइंग के पहाड़ों का यह छोटा-सा शहर, युद्ध की अनेकों कहानियां ख़ुद में बसाए हुए है।

जिस रेस्तरां में हम गए, वहां का मालिक क़रीब साठ वर्षीय एक हंसमुख व्यक्ति था। उसे यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई थी कि मैं हिंदुस्तानी होने के बावजूद उनकी स्थानीय भाषा जानती थी, जो इतालवी भाषा से कुछ अलग थी।

दरअसल मेरे कई मित्र वेनिस के थे और उन्होंने मुझे यहां की लोकल भाषा सिखा दी थी!

 

 सर्दियों में इटली के सैलानी यहां के पहाड़ मोन्ते कोर्नो पर गिरी बर्फ़ का आनंद लेने आते हैं और गर्मियों में यहां के संग्रहालय और गिरजाघर में चहल-पहल रहती है।

यहां के सबसे बड़े कैथेड्रल में लकड़ी का एक ऐसा ख़ास कांटा है जिसे स्वयं यीशू से जोड़ा जाता है!

मान्यता यह है कि यह कांटा उस कांटों के ताज का हिस्सा है जिसे सर पर लिए ईश्वर के बेटे, यीशू मानवता की ख़ातिर क्रॉस पर चढ़ गए थे।

श्रद्धालु दूर-दूर से इसके दर्शन के लिए आते हैं। गिरजा के भीतर की शांति मुझे आज भी याद है। वहां की अलौकिक ठंडक में मैं काफ़ी देर तक बैठी रही और सोचती रही कि समर्पण या क़ुर्बानी के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।

लेकिन क्या हमारा समाज दूसरों के त्याग को समझता भी है?

चर्च की घंटी बजने लगी और मुझे लगा कि अब चलना चाहिए।

 

ख़ैर, बात करते और कॉफ़ी पीते समय निकलता रहा और लुचानो अपना काम करके वापस आ गए। उन्होंने मुझे वेनिस की ट्रेन में बैठाया और ख़ुद बस्सानो वापस चला गया।

लौटते वक्त गाड़ी में सोचती रही कितना छोटा और गुमनाम शहर था वो, लेकिन, मेरे लिए, कितना महत्वपूर्ण था।

(प्रतिष्ठा सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में इतालवी साहित्य पढ़ाती हैं। वो देश-विदेश के छोटे गांवों और शहरों में घूमती हैं।)

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Posted By: Chandramohan Mishra