Kanpur: मौसम किसी भी इंसान की साइकी पर इस कदर असर डालता है कि वो खुद अपनी ही जिंदगी को खत्म करने जैसा कदम उठा लेता है. पिछले तीन साल का क्राइम रिकॉर्ड भी मौसम के केमिकल लोचे की कहानी बयां कर रहे हैं. नवंबर से फरवरी महीने के मुकाबले मार्च से जून महीने में सुसाइड की घटनाओं की संख्या दोगुनी से ज्यादा दर्ज की गई. वहीं साइकियाट्रिस्ट भी मानते हैं कि हॉर्मोनल डिसबैलेंस की वजह से लोगों पर डिप्रेशन हावी हो रहा है. ये अजीबो-गरीब मौसम किस तरह से केमिकल लोचा कराके लोगों की साइकी को बदल देता है.



गुलाबी सर्दी जा चुकी है और धीरे-धीरे पारा ऊपर की तरफ जा रहा है। जोकि ह्यूमन बॉडी पर डायरेक्ट और इनडायरेक्ट दोनों तरह से इफेक्ट डाल रहा है। बदलते मौसम की ये हीट ह्यूमन बॉडी में रिलीज होने वाले हॉर्मोंस को डिसबैलेंस करके उसकी साइकी को प्रभावित कर रही है। शॉकिंग फैक्ट ये है कि ये मौसम किसी भी इंसान की साइकी पर इस कदर असर डालता है कि वो खुद अपनी ही जिंदगी को खत्म करने जैसा कदम उठा लेता है। पिछले तीन साल का क्राइम रिकॉर्ड भी मौसम के केमिकल लोचे की कहानी बयां कर रहे हैं। नवंबर से फरवरी महीने के मुकाबले मार्च से जून महीने में सुसाइड की घटनाओं की संख्या दोगुनी से ज्यादा दर्ज की गई। वहीं साइकियाट्रिस्ट भी मानते हैं कि हॉर्मोनल डिसबैलेंस की वजह से लोगों पर डिप्रेशन हावी हो रहा है। ये अजीबो-गरीब मौसम किस तरह से केमिकल लोचा कराके लोगों की साइकी को बदल देता है। आई नेक्स्ट रिपोर्टर ने साइकोलॉजिस्ट और कुछ एक्सपट्र्स से बातकर जाना आखिर क्या है ये केमिकल लोचा।

साइकियाट्रिस्ट डॉ। रवि कुमार के मुताबिक गर्मियों के मौसम में बॉडी से रिलीज होने वाले हार्मोंस में डिसबैलेंस होने लगता है। और बॉडी में होने वाले हार्मोनल डिसबैलेंस व्यक्ति की सोच पर असर डालते हैं। उसमें बिहेवियर चेंजेज आने लगते हैं। इस बारे में डॉ। हेमंत मोहन बताते हैं कि ब्रेन में एंडोक्राइन ग्लैंड से चार तरह के डक्टलेस हार्मोंस रिलीज होते हैं, जो डायरेक्ट ब्लड में मिलते हैं। यही हार्मोंस ह्यूमन बिहेवियर को प्रजेंट करते हैं। उन्होंने बताया कि मार्च, अप्रैल, मई और जून के महीने के मौसम में इन हार्मोंस के रिलीज होने की क्वांटिटी रिफलेक्ट होने लगती है, जिसकी वजह से ह्यूमन बिहेवियर में चेंजेज आते हैं। आइए आपको बताते हैं कि बॉडी में कौन-कौन से हार्मोंस होते है और इनके डिसबैलेंस होने का क्या असर पड़ता है।थाइराइड हॉर्मोन : इस हार्मोन के बढऩे से थाइरोटाक्सीकोसिस बढ़ जाता है। जिसकी वजह से बॉडी फूलने लगती है और डिप्रेशन हावी होने लगता है। शरीर शिथिल होने के कारण जिंदगी खत्म करने की इच्छा मन में घर करने लगती है। इस कंडीशन में इनफीरियरटी कॉम्पलेक्स भी हावी होने लगता है।

एड्रीनेलिन हार्मोन : इस हार्मोन को ह्यूमन बिहेवियर के चेंज होने के लिए बहुत ही इम्पार्टेंट माना जाता है। इंसान के अंदर गुस्सा, ईष्र्या, डर और डर से लडऩे की ताकत इस हार्मोन की वजह से घटती और बढ़ती है। हार्मोन डिसबैलेंस होने पर डिप्रेशन की कंडीशन में ये हार्मोन सुसाइड जैसा गंभीर कदम उठाने पर मजबूर करा सकता है।पैराथाइराइड हार्मोन : इस हार्मोन की वजह से ह्यूमन बॉडी में ओवर एक्साइटमेंट जेनरेट होता है। हार्मोन के डिसबैलेंस होने से ओवर एक्साइटमेंट का लेवल बढ़ता है और व्यक्ति ऐसा काम करने लगता है, जो गलत होता है।पिट्यूट्री हार्मोन : इस हार्मोन की वजह से हेलूसिएशन होता है। ये व्यक्ति की कल्पना शक्ति के लिए बहुत इम्पार्टेंट हार्मोन है। लेकिन जब इस हार्मोन में डिसबैलेंस होता है तो ये एक लिमिट से ज्यादा काल्पनिक चीजों का अहसास कराने लगता है। जिससे साइकोसिमोटिस डिसआर्डर हो जाता है।मेरा जीवन किसी काम का नहीं
डॉ। उन्नति कुमार के मुताबिक मौसम में हो रहे बदलाव के कारण ब्रेन से रिलीज होने वाले हार्मोंस एक नियमित मात्रा में नहीं निकल पाते हैं। कभी कोई हार्मोन जरूरत से ज्यादा निकलता है तो कभी जरूरत से कम निकलता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का दिमाग एक समय में ही कई अलग-अलग बातें सोचने लगता है। उदाहरण के तौर पर जब ब्रेन से थाइराइड हार्मोन ज्यादा निकलता है तो व्यक्ति शिथिल होने लगता है, उसकी सोच भी शिथिल होती जाती है। इसलिए वो डिप्रेशन का शिकार होने लगता है, उसे लगता है कि उसकी जीवन किसी काम का नहीं है, उसके होने या न होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन उस वक्त व्यक्ति इस स्थिति में नहीं होता है कि वो खुद को खत्म कर ले। और उसी वक्त व्यक्ति के ब्रेन से निकलने वाला एड्रीनेलिन हार्मोन भी जरूरत से ज्यादा निकलता है, जो उस व्यक्ति के अंदर गुस्सा, किसी भी काम को करने की ताकत और ईष्र्या को जन्म देता है। लेकिन इस कैमिकल डिसबैलेंस के बीच व्यक्ति ये डिसाइड नहीं कर पाता है कि वो जो काम करने जा रहा है, वो सही है या फिर गलत। और व्यक्ति सुसाइड जैसा कदम उठाने की हिम्मत कर बैठता है। हालांकि ऐसा करने के बाद मौत आने के आखिरी पल तक वो अपनी जान बचाने के लिए प्रयास करने की कोशिश करता है लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी होती है।सबकुछ बदल जाता है-मेंटल लेवल इमबैलेंस हो जाता है। प्रॉपर तरीके से सोचने और समझने की क्षमता कम हो जाती है। कब-क्या कहना है, क्या करना है, इन बातों पर कोई कंट्रोल नहीं रहता है।
-अलग-अलग तरह के इल्यूजन होने लगता है। हर वक्त काल्पनिक चीजों का एहसास होता है। जो चीज वास्तविक तौर पर नहीं है, उसके होने की एहसास व्यक्ति को मिसगाइड करता है और वो कुछ ऐसा करने के लिए आगे बढ़ जाता है, जो गलत है।-व्यक्ति जितने भी गलत काम करता है, उसे लगता है कि वो सही हैं। छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा आने लगता है। जिस काम को करने के लिए मना किया जाए, उस काम को जरूर करते हैं।नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं यूथहार्मोनल डिसबैलेंस होने से यूथ पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है। ऐसा होने पर यूथ सिरेटिस यानि नशे या फिर नींद की दवाईयां खाने का आदी हो जाता है। एक बार नशे की लत लगने के बाद वो इसकी गिरफ्त में आ जाता है। उसे अपनी दिमाग की उलझन से निपटने के लिए ये नशा एक बेहतर दवा की तरह लगने लगता है। जबकि उसे नहीं पता होता है कि जिसे वो दवा समझ रहा है वो उसके जीवन में एक कड़वा जहर घोल रहा है।मेंटल सपोर्ट जरूरी है-अगर आपको अपनी फैमिली के किसी भी व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव नजर आए तो इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। उसके साथ बैठकर एक दोस्त की तरह बात करनी चाहिए। और उसकी परेशानी के बारे में जानने की कोशिश करनी चाहिए।-अगर मेंटल इमबैलेंस होने की बात सामने आती है, तो उस व्यक्ति की प्रॉपर काउंसलिंग करानी चाहिए। क्योंकि जब तक उस व्यक्ति को होने वाली उलझन या परेशानी की जड़ के बारे में पता नहीं लगाया जाएगा, तब तक उसको इस मनास्थिति से बाहर नहीं निकाला जा सकता है।सुसाइड की घटनाएंसाल                   नवंबर से फरवरी    मार्च से जून2009-2010               32                  662010-2011               24                  562011-2012               28                  61

Posted By: Inextlive